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निशीथ सूत्र .
खुला हो, किसी के लिए भी निषेध न हो तो वहाँ भिक्षु यदि शास्त्र-निरूपित विधि-मर्यादा के अनुसार उच्चार-प्रस्रवण का परित्याग या परिष्ठापन करे तो दोष नहीं लगता।
उसी प्रकार यदि किसी व्यक्तिगत स्थान के स्वामी ने भिक्षुओं के लिए उच्चार-प्रस्रवण परित्याग, परिष्ठापन की आज्ञा दे रखी हो तो वहाँ यथाविधि वैसा करना प्रायश्चित्त योग्य नहीं है।
अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को आहार देने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा असणं. वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं वा साइजइ॥ ७८॥
भावार्थ - ७८. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार देता है अथवा देते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भिक्षु महाव्रतधारी होता है। महाव्रतों में मन-वचन-काय तथा कृत-कारितअनुमोदित रूप में सभी सावध कार्यों का परित्याग होता है। दीक्षा लेते समय उच्चारित किया जाने वाला 'सवं सावज जोगं पच्चक्खामि' वाक्य इसी भाव का उद्बोधक है। गृहस्थ का जीवन चाहे वह व्रतधारी भी हो, सर्वथा निर्वद्य नहीं होता। क्योंकि उस द्वारा व्रत ग्रहण आगार या अपवाद के साथ किया जाता है। अत: उसके जीवन में सावध कार्यों का भी समावेश रहता है।
साधु सावध का किसी भी रूप में परिपोषक नहीं होता, इसलिए उस द्वारा अपने आहार में से गृहस्थ को दिया जाना दोषयुक्त है, प्रायश्चित्त योग्य है, क्योंकि उससे सावध का पोषण होता है।
जो गृहस्थ भिक्षु को आहार देता है, उसका लक्ष्य या भाव भिक्षु की संयमाराधना में सहयोग करना होता है। अतः यदि भिक्षु वह आहार किसी गृहस्थ को देता है तो उसमें जिनाज्ञा तथा दातृ आज्ञा न होने से तीसरे महाव्रत में दोष लगता है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि कदाचन देने वाले गृहस्थ या लेने वाले भिक्षु की असावधानी से सचित्त, अकल्प्य आहार-पानी गृहीत हो जाए तो जिससे प्राप्त किया हो, शीघ्र ही उस गृहस्थ को उसे वापस दे दिया जाना चाहिए। आचारांग सूत्र में ऐसा विधान हुआ है। .(क) आचारांग सूत्र - २-१-१०
(ख) आचारांग सूत्र - २-६-२ .
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