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पंचदश उद्देशक - अकल्प्य स्थानों में मल-मूत्रोत्सर्ग-परिष्ठापन विषयक....
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७५. जो भिक्षु यानगृह, यानशाला, युग्यगृह एवं युग्यशाला - शिविका - पालखी आदि रखने के स्थान - इनमें से किसी में मल-मूत्र त्यागता है, परठता है अथवा ऐसा करने वाले. का अनुमोदन करता है। ' ७६. जो भिक्षु पण्यशाला - क्रय-विक्रय स्थान, पण्यगृह, परिव्राजकशाला, परिव्राजकगृह, कुप्यशाला तथा कुप्यगृह - पात्र या भांडादि रखने का स्थान - इनमें से किसी में मल-मूत्र त्यागता है, परठता है या ऐसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
७७. जो भिक्षु गोशाला, गोगृह, महाकुल और महागृह - इनमें से किसी में मल-मूत्र त्यागता है, परठता है अथवा वैसा करने वाले का अनुमोदन करता है।
उपर्युक्त अविहित कार्य करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भिक्षु की सभी क्रियाएँ ऐसी होती हैं, जिनमें हिंसा आदि दोषों का परिवर्जन तो होता ही है साथ ही साथ में वे ऐसी हों, जिससे किसी व्यक्ति के मन में पीड़ा या चोट न पहुँचे। क्योंकि किसी के मन को आघात पहुँचाना भी भिक्षु के लिए परिहेय है। __जिस प्रकार भिक्षाचर्या आदि की नियमोपनियमबद्ध मर्यादाएँ हैं, उसी प्रकार उच्चारप्रस्रवण के परित्याग और परिष्ठापन के संबंध में भी भिक्षु को मर्यादानुरूप सावधानी बरतने का विधान है। _उपर्युक्त सूत्रों में जिन स्थानों का उल्लेख हुआ है उनमें से कतिपय व्यक्तिगत हैं तथा कतिपय सार्वजनिक। व्यक्तिगत स्थानों के तो स्वामी होते ही हैं, सार्वजनिक स्थानों के भी समाज द्वारा नियुक्त रक्षक या प्रहरी होते हैं। उनको पूछे बिना उन स्थानों का भिक्षु द्वारा उच्चार-प्रस्रवण के परित्याग, परिष्ठापन में उपयोग किए जाने से तृतीय - अचौर्य महाव्रत में दोष आता है।
जब उन स्थानों के अधिकारियों, रक्षकों या प्रहरियों को उस संबंध में जानकारी होती है तो वे उससे रुष्ट, नाराज होते हैं तथा साधु के इस कार्य को अभद्रता एवं अशिष्टतापूर्ण मानते हैं। इससे साधु संघ की निंदा होती है। यदि उन लोगों में से कोई कोपाविष्ट हो जाए तो उस द्वारा भिक्षु के साथ अशिष्ट व्यवहार किया जाना भी आशंकित है। इन सभी स्थितियों की अपेक्षा से उपर्युक्त स्थानों में उच्चार-प्रस्रवण परित्याग, परिष्ठापन को प्रायश्चित्त योग्य कहा गया है। ___ यहाँ यह ज्ञातव्य है, यदि कोई मल-मूत्र परित्याग का सार्वजनिक स्थान सबके लिए
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