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पण्णरसमो उद्देसओ - पंचदश उद्देशक
भिक्षु-आशातना विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू भिक्खूणं आगाढं वयइ वयंतं वा साइजइ॥१॥ जे भिक्खू भिक्खूणं फरुसं वयइ वयंतं वा साइजइ॥२॥ . जे भिक्खू भिक्खूणं आगाढं फरुसं वयइ वयंतं वा साइजइ॥ ३॥
जे भिक्खू भिक्खूणं अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ अच्चासाएंतं वा साइजइ॥४॥
कठिन शब्दार्थ - भिक्खूणं - भिक्षुओं को, आगाढं - रोषयुक्त, वयइ - वचन बोलता है, अण्णयरीए - अन्य किसी प्रकार की, अच्चासायणाए - आशातना करता है। ___भावार्थ - १. जो भिक्षु भिक्षुओं को रोषयुक्त वचन कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है।
२. जो भिक्षु भिक्षुओं को कठोर वचन कहता है अथवा कहने वाले का अनुमोदन करता है। ____३. जो भिक्षु भिक्षुओं को रोषयुक्त एवं कठोर वचन कहता है या कहते हुए का अनुमोदन करता है।
४. जो भिक्षु भिक्षुओं की अन्य किसी प्रकार से आशातना करता है अथवा आशातना करते हुए का अनुमोदन करता है।
उपर्युक्त अविहित कार्य करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - मानसिक, वाचिक एवं कायिक दृष्टि से भिक्षु के व्यवहार में सहिष्णुता, धृति, अहिंसक वृत्ति तथा समता रहे, यह आवश्यक है। इससे उसकी आध्यात्मिक साधना बलवती होती है। वह किसी के भी प्रति ऐसा व्यवहार न करे, जिससे सम्मुखीन व्यक्ति उद्वेजित या पीड़ित हो। दशम उद्देशक में आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, रत्नाधिक आदि के प्रति आशातनापूर्ण व्यवहार करने का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। "विणयमूलो धम्मो" (धर्म विनयमूलक है) इस सिद्धान्त के अनुसार भिक्षु का इन आदरणीय सत्पुरुषों के प्रति तो सदैव विनम्रता का भाव रहना चाहिए। विनय से जीवन में उत्तरोत्तर निर्मलता, पवित्रता का .
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