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निशीथ सूत्र
जे भिक्खू पड़िग्गहणीसाए वासावासं वसइ वसंतं वा साइज्जइ । तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्घाइयं ॥ ५३ ॥
॥ णिसीहऽज्झयणे चउद्दसमो उद्देसो समत्तो ॥ १४॥
कठिन शब्दार्थ - पडिग्गहणीसाए - पात्र प्राप्त करने की वांछा से, उड्डुबद्धं - ऋतुबद्ध - मासकल्प की मर्यादा के अनुरूप ।
ऋतुबद्धकाल.. में मासकल्प
भावार्थ - ५२. जो भिक्षु पात्र प्राप्त करने की वांछा से की मर्यादानुसार रहता है या रहने वाले का अनुमोदन करता है ।
५३. जो भिक्षु पात्र प्राप्त करने की वांछा से वर्षावास में रहता है अथवा रहने वाले का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
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इस प्रकार उपर्युक्त ५३ सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त स्थान का, तद्गत दोषों का सेवन करने वाले भिक्षु को उद्घातिक परिहार- तप रूप लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार निशीथ अध्ययन (निशीथ सूत्र ) में चतुर्दश उद्देशक परिसंपन्न होता है । : विवेचन - भिक्षु के लिए वस्त्र, पात्र आदि औपधिक सामग्री केवल संयम के उपकरण भूत देह की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है। पात्रादि के प्रति उसके मन में जरा भी मोह, आसक्ति या आकर्षण न हो, यह परम आवश्यक है । वैसा होना संयम की उच्च भूमिका से नीचे उतरना है, जो सर्वथा अवांछित है।
मासकल्प और चातुर्मास कल्प के अनुसार भिक्षु की विहारचर्या की मर्यादा है। यदि कोई भिक्षु ऐसी मानसिकता के साथ कि मुझे यहाँ गृहस्थों से उत्तम पात्र प्राप्त होंगे, मासकल्प ठहरता है या चातुर्मास करता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। क्योंकि भिक्षु का प्रवास, यात्रा प्रसंग आदि स्व-परं कल्याण के लिए ही होते हैं। स्वयं साधनारत रहते हुए, जन-जन को धर्मोपदेश देकर संयमपथ की ओर अग्रसर करना भिक्षु का लक्ष्य होता है।
यदि भिक्षु को पात्र की अत्यन्त आवश्यकता हो, वैसी स्थिति में वह प्राप्ति की संभावना की दृष्टि से कुछ समय नहीं ठहर जाय तो उसे दोष नहीं लगता। क्योंकि आवश्यकता और आसक्ति में अन्तर है। आवश्यकता पूरणीय है और आसक्ति सर्वथा परिवर्जनीय तथा परिय है।
॥ इति निशीथ सूत्र का चतुर्दश उद्देशक समाप्त ॥
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