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त्रयोदश उद्देशक - वमन आदि हेतु औषधप्रयोग विषयक प्रायश्चित्त
इस प्रकार उपर्युक्त रूप में आचरण करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन भिक्षु जीवन में वही ग्राह्य है, जो संयमोपवर्धन में सहायक हो, बाधा निवारक हो । शरीर की इसीलिए उपयोगिता है कि संवर- निर्जरामय साधनाक्रम में वह उपकरणभूत है । अत एव उसके रुग्ण, अस्वस्थ हो जाने पर शास्त्रमर्यादानुरूप औषध सेवन एवं चिकित्सा विहित है। किन्तु बिना किसी रोग के वमन, विरेचन, तत्पूर्वक पौष्टिक औषधि सेवन साधु के लिए अविहित है । यहाँ वमन विरेचन का जो उल्लेख है, वह आयुर्वेद सम्मत पंचकर्म की ओर संकेत है।
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आयुर्वेद में वमन, विरेचन, स्नेहन, स्वेदन, अनुवासन के रूप में पाँच कर्मों का उल्लेख है। उससे दैहिक शुद्धि कर शक्तिवर्धक औषधि लेना अधिक गुणकारी होता है। उससे शरीर में शक्ति संचयन होता है । भिक्षु के लिए ऐसा करना निषिद्ध है क्योंकि ऐसा करने में आध्यात्मिकता गौण हो जाती है जबकि लक्ष्य अध्यात्म है, देह नहीं । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि ऋतु विशेष में वात, पित्त, कफादि जनित रोग आशंकित हों तथा पूर्व में तत्प्रतिरोधक औषधि लेने से उनके होने की संभावना क्षीण हो जाए तो भिक्षु मर्यादानुरूप निर्वद्यतया औषध सेवन करे तो दोष नहीं है। किन्तु औषध ऐसी न हो जो शक्तिवर्धक, बलोत्तेजक या पुष्टिकर हो। क्योंकि दैहिक शक्ति या पुष्टि का अतिरेक कामादि कलुषित भावों का संवर्धन करता है ।
व्यावहारिक दृष्टि से वमन, विरेचन आदि में और भी अनेक बाधाएँ रहती हैं। इनके अधिक होने से मृत्यु तक हो जाती है। जैसा कि आयुर्वेद में कहा है
मलायत्तं हि बलं पुंसाम्, मलायत्तं हि जीवितम् ।
शरीर में मल की विद्यमानता अपनी ऊष्मा के कारण जीवनीय शक्ति का कार्य करती है । वमन विरेचन द्वारा इसका सर्वथा निष्कासन हो जाने से कुछ भी दुर्घटित होने की संभावना रहती है।
वमन विरेचन आदि के वेगाधिक्य से यदि समक्ष गृहस्थ आदि हों तो उनका अवरोध करना पड़ता है, जो हानिकर है।
"न वेगान् धारयेत् धीमान् "
बुद्धिमान व्यक्ति मल-मूत्र आदि के वेग को धारण न करें, न रोकें । आयुर्वेदशास्त्र की यह उक्ति इसी भाव को व्यक्त करती है ।
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