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निशीथ सूत्र
होता है, जो निर्मल हों, स्निग्ध तथा विशेष आभायुक्त हों। उनके सामने देखने पर अपनी आकृति उनमें प्रतिबिम्बित होती है । यह असाधुजनोचित क्रिया है । व्यक्तित्व के छिछलेपन की द्योतक है। जिन पदार्थों का इन सूत्रों में वर्णन हुआ है, उनमें बहुत से ऐसे हैं, जो भिक्षु को भिक्षा में प्राप्त होते हैं। तलवार, दर्पण, मणि, मदिरा और वसा ऐसी वस्तुएँ हैं, जिन्हें भिक्षु ग्रहण नहीं करता, उनका उपयोग नहीं करता। अतः यदि भिक्षा हेतु गृहस्थ के यहाँ जाए तो उसे वहाँ इन पदार्थों को देखने का अवसर प्राप्त हो जाता है। वह उनमें अपनी परछाई कदापि न देखे !
अपनी परछाई देखना विवेकशून्य एवं बचकाना कार्य है, मन की चंचलवृत्ति का सूचक है, जिसमें भिक्षु को कभी भी ग्रस्त नहीं होना चाहिए। धार्मिक दृष्टि से यह कर्मबन्ध का हेतु है, लौकिक दृष्टि से भी परिहास योग्य है।
त्याग - वैराग्य की जिस ऊँची भूमिका में भिक्षु स्थित होता है, वह अपने साधनाशील जीवन की गरिमा को जानता हुआ कदापि ऐसा नहीं करता। यदि करता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है।
वमन आदि हेतु औषधप्रयोग विषयक प्रायश्चित्त
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जे भिक्खू वमणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ ४२॥ जे भिक्खू विरेयणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ ४३ ॥ जे भिक्खू वमणविरेयणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ ४४ ॥
जे भिक्खू अरोगियपडिकम्मं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ ४५ ॥
कठिन शब्दार्थ - वमणं वमन, विरेयणं विरेचन, वमणविरेयणं वमन विरेचन, अरोगियपडिकम्मं - आरोग्यप्रतिकर्म रोग आने से पूर्व ही उससे बचाव हेतु औषध सेवन
करना ।
भावार्थ - ४२. जो भिक्षु वमन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। ४३. जो भिक्षु विरेचन करता है अथवा करते हुए का अनुमोदन करता है । ४४. जो भिक्षु वमन और विरेचन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। ४५. जो भिक्षु आरोग्य प्रतिकर्म ( रोग नहीं होने पर भी उपचार ) करता है अथवा करने वाले का अनुमोदन करता है ।
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