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त्रयोदश उद्देशक - पात्रादि में अपना प्रतिबिम्ब देखने का प्रायश्चित्त
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परछाइ को प्रेक्षित करता है - देखता है (प्रलोकित करता है - विशेष रूप से अवलोकन करता है अथवा प्रलोकन करने वाले) देखने वाले का अनुमोदन करता है।
३२. जो भिक्षु दर्पण में अपने मुख आदि की आकृति को देखता है अथवा देखने वाले का अनुमोदन करता है।
३३. जो भिक्षु तलवार में अपने मुख आदि की आकृति को देखता है या देखते हुए का अनुमोदन करता है।
३४. जो भिक्षु मणि में अपने मुख आदि की आकृति को देखता है अथवा देखने वाले का अनुमोदन करता है।
३५. जो भिक्षु कुण्ड या सरोवर आदि के पानी में अपने मुख आदि की आकृति को देखता है या देखते हुए का अनुमोदन करता है। ___३६. जो भिक्षु तेल में अपने मुख आदि की आकृति को देखता है अथवा देखने वाले
का अनुमोदन करता है। . ___३७. जो भिक्षु मधु - शहद में अपने मुख आदि की आकृति को देखता है या देखते हुए का अनुमोदन करता है।
३८. जो भिक्षु सर्पि - घृत में अपने मुख आदि की आकृति को देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है।
३९. जो भिक्षु गीले गुड़ या गुड़ आदि घोलित जल में अपने मुख आदि की आकृति को देखता है अथवा देखते हुए का अनुमोदन करता है।
४०. जो भिक्षु मद्य - मदिरा में अपने मुख आदि की आकृति को देखता है या देखने वाले का अनुमोदन करता है।
४१. जो भिक्षु वसा - चर्बी में अपने मुख आदि की आकृति को देखता है अथवा देखते हुए का अनुमोदन करता है।
इस प्रकार उपर्युक्त अविहित कार्य करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भिक्षु कभी भी मनोरंजन, मनोविनोद, कुतूहल आदि के वशीभूत होकर ऐसे कार्य न करें, जो उपाहासास्पद हों। __इन सूत्रों में ग्यारह पदार्थों या वस्तुओं का उल्लेख करते हुए भिक्षु द्वारा उनमें अपना प्रतिबिम्ब देखा जाना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। प्रतिबिम्ब उन्हीं पदार्थों में दृष्टिगोचर
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