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निशीथ सूत्र
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मन में द्रव्य आदि के प्रति आसक्ति उत्पन्न हो जाए तो लालच में पड़कर विज्ञ भिक्षु भी ऐसे जंजाल में फंस जाता है। भिक्षु के जीवन में वैसा अवांछित प्रसंग कभी न आए, इस दृष्टि से इन सूत्रों में धातु और निधि बताना प्रायश्चित्त योग्य निरूपित हुआ है।
भिक्षु का जीवन तो इतना त्यागमय होता है कि वह खाने, पीने के पात्र भी धातु के नहीं रखता, काष्ठ या तुम्बिका के पात्र का प्रयोग करता है।
पात्रादि में अपना प्रतिबिम्ब देखने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू मत्तए अ (प्प)त्ताणं देहइ देहतं वा( पलोएइ पलोएंतं वा) साइजइ॥ ३१॥
जे भिक्खू अदाए अप्पाणं देहइ देहंतं वा साइजइ॥३२॥ जे भिक्खू असीए अप्पाणं देहइ देहंतं वा साइज्जइ॥३३॥ जे भिक्खू मणीए अप्पाणं देहइ देहंतं वा साइजइ॥ ३४॥ .... जे भिक्खू कुंडपाणिए अप्पाणं देहइ देहंतं वा साइज्जइ॥ ३५॥ जे भिक्ख तेल्ले अप्पाणं देहइ देहंतं वा साइज्जइ॥३६॥ जे भिक्खू महुए अप्पाणं देहइ देहंतं वा साइजइ॥ ३७॥ जे भिक्खू सप्पिए अप्पाणं देहइ देहंतं वा साइज्जइ॥ ३८॥ जे भिक्खू फाणिए अप्पाणं देहइ देहंतं वा साइज्जइ॥ ३९॥ जे भिक्खू मजए अप्पाणं देहइ देहंतं वा साइजइ॥ ४०॥ जे भिक्खू वसाए अप्पाणं देहइ देहंतं वा साइजइ॥४१॥
कठिन शब्दार्थ - मत्तए - पात्र में, अ(प्पा)त्ताणं - अपने आपको - अपने मुख आदि की आकृति को, प्रतिबिम्ब या परछाइ को, देहइ - देखता है, पलोएइ - प्रलोकित करता है - विशेष रूप से अवलोकन करता है, अहाए - दर्पण में, असीए - तलवार में, मणीए - मणि में, कुंडपाणिए - कुण्ड या सरोवर आदि के पानी में, तेल्ले - तेल में, महुए - मधु - शहद में, सप्पिए - सर्पि - घृत में, फाणिए - गीले गुड़ में या गुड़ आदि घोलित मिश्रित जल में, मज्जए - मद्य-मदिरा में, वसाए - वसा - चर्बी में। .
भावार्थ - ३१. जो भिक्षु पात्र में अपने मुख आदि की आकृति को - प्रतिबिम्ब या
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