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निशीथ सूत्र
की आशंका है। वह सुप्राप्य है, अतः वैसा करना आवश्यक भी नहीं है। आलेपन - विलेपन संबंधी पदार्थों को रात - बासी न रखने का जो उल्लेख हुआ है, उसका संबंध मुख्यतः भिक्षु की असंग्रहवृत्ति का सूचक है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उनकी संघोटन आदि की प्रक्रिया में समय एवं श्रम साध्यता हो तथा प्रयोग करना आवश्यक हो तो भी मर्यादाप्रतिकूल उपयोग करने पर लघु चौमास प्रायश्चित्त का विधान किया गया है।
भिक्षु जीवन इतना मर्यादाबद्ध होता है कि दैहिक रुग्णतादि जनित आवश्यकताओं में भी साधु समाचारी का उल्लंघन वहाँ स्वीकृत नहीं है ।
गृहस्थ से उपधि-वहन का प्रायश्चित
जे भिक्खू अण्णउत्थि एण वा गारत्थिएण वा उवहिं वहावेइ वहावेंतं वा साइज्जइ ॥४१॥
जे भिक्खू तणीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं
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वा साइज्जइ ॥ ४२ ॥
कठिन शब्दार्थ - उवहिं - उपधि का, वहावेइ - वाहयति
तणीसाए - उपधि आदि वहन करने वाले को ।
भावार्थ - ४१. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से उपधि - स्वकीय वस्त्र - पात्रादि का वहन करवाता है या करवाने वाले का अनुमोदन करता है।
४२. जो भिक्षु वाहक को (उपधि वहन करवाने के निमित्त से ) अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य रूप आहार देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - जैसा कि यथाप्रसंग पहले व्याख्यात हुआ है, साधु स्वावलम्बी जीवन जीता है। किसी भी प्रकार से वह ही लेता है, जो उसके लिए न बना हो । स्वयं के खाने में संकोच कर दिया गया हो ।
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साधु वस्त्र, पात्र आदि उतने ही रखता है, जितने वह आसानी से ले कर चल सके । गृहस्थ द्वारा अपने सामान का वहन करवाना परावलंबन का द्योतक है। इससे साधु पराश्रित हो जाता है । पराश्रय संयम में बाधक है। इसके अतिरिक्त और भी अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, जो आध्यात्मिक और ऐहिक दोनों दृष्टियों से हानिकारक हैं।
गृहस्थ साधु की उपाधि लेकर चलता है तब जीवों की जो विराधना होती है,
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वहन कराता है,
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