________________
द्वादश उद्देशक - महानदी पार करने का प्रायश्चित्त
२८१
उसका साधु को भी दोष लगता है क्योंकि उसकी गति का मुख्य कारण साधु की उपधि का वहन है। - उपधिवाहक यदि चलने में असावधानीवश उपधि नीचे गिरा दे तब भी जीव विराधना आशंकित है। किसी वस्त्र विशेष के प्रति वाहक के मन में लालच उत्पन्न हो जाए तथा वह लेकर भाग जाए तो उससे असमाधि उत्पन्न होती है। __ यदि साधु का औपधिक भार अधिक हो, जिससे गृहस्थ के द्वारा ले कर चलने में कष्ट हो तो उसका भी साधु को दोष लगता है। उबड़-खाबड़, कष्टकर भूमि में चलने से वाहक को चोट लग जाए या बीमार हो जाए तो साधु को उसकी चिकित्सा की व्यवस्था करवाने में अनेक दोषों की आशंका रहती है।
भारवाहक गृहस्थ की मार्ग में भोजन व्यवस्था न हो सके तो साधु के मन में उसे खिलाने के संदर्भ में संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते हैं तथा गवेषणा कर स्वयं लाए आहार में से देने का भाव भी उत्पन्न हो सकता है। ____यदि पारिश्रमिक यां मजदूरी देकर उपधिवाहक रखा जाए तो अपरिग्रह महाव्रत खंडित होता है। .. यदि अध्येतव्य ग्रंथों का भार अधिक हो जाए, उन्हें साथ में रखना आवश्यक हो अथवा साधु स्वयं किसी प्रकार से शारीरिक दृष्टि से उपधि ले जाने में असमर्थ हो जाए तो वैसे में गृहस्थ से उपधि वहन करवाने की परिस्थिति में उसे सूत्रोक्त प्रायश्चित्त लेना होता है।
जैन आगमों में साधु की आवश्यक सामग्री के लिए उपधि शब्द का प्रयोग होता रहा है। यह शब्द 'उप' उपसर्ग और 'धा' धातु के योग से बना है। 'उप' उपसर्ग सामीप्य द्योतक है तथा 'धा' धातु धारण करने, वहन करने या ढोने के अर्थ में है। जिस सामान को अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपने पास रखा जाता है, उसे 'उपधि' कहा जाता है।
महानदी पार करने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू इमाओ पंच महण्णवाओ महाणईओ उहिट्ठाओ गणियाओ वंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरइ वा संतरइ वा उत्तरंतं वा संतरंतं वा साइजइ, तंजहा-गंगा जउणा सरऊ एरावई मही। तं सेवमाणे आवजइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं॥४३॥
॥णिसीहऽज्झयणे बारसमो उद्देसो समत्तो॥ १२॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org