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द्वादश उद्देशक - स्थावरकाय हिंसा विषयक प्रायश्चित्त
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जे भिक्खू णिग्गंथीए संघाडिं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सिव्वावेइ सिव्वावेंतं वा साइज्जइ॥७॥
कठिन शब्दार्थ - संघाडि - शाटिका, सिव्वावेइ - सिलवाता है।
भावार्थ - ७. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से साध्वी की शाटिका सिलवाता है या सिलवाने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - साधु समाचारी के अनुसार साध्वी की शाटिका या चद्दर एक खण्डीय अथवा तीन प्रमाण (४ हाथ, ३ हाथ, २ हाथ) भी हो सकती है। त्रिखंडीय शाटिका का सिलाया जाना आवश्यक है। जैसा कि यथास्थान विवेचन हुआ है, जैन साधु-साध्वियों का जीवन स्वावलम्बितापूर्ण होता है। वे अपने सभी कार्य स्वयं करते हैं अथवा संघीय व्यवस्था के अनुरूप सांभोगिक - परस्पर व्यवहार-साहचर्य युक्त साधु-साध्वियों से करवा सकते हैं। औरों से करवाना परावलम्बिता का द्योतक है। इसीलिए इस सूत्र में अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से शाटिका सिलवाने का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। __जैन साधु-साध्वियों का आध्यात्मिक उद्बोधन और धार्मिक उपदेश देने की दृष्टि से श्रावक-श्राविकाओं से संबंध है किन्तु अपनी जीवनचर्या से संबद्ध विविध कार्यों के संदर्भ में वे औरों से सहयोग नहीं ले सकते। क्योंकि इससे ऐहिक संपर्क बढता है, जिससे संयमजीवितव्य में लाभ के स्थान पर हानि ही आशंकित है। - साधु द्वारा साध्वी की शाटिका अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से सिलवाने पर और भी आशंकाएँ घटित हो सकती हैं। जिससे सिलवाया जाए उसके मन में साधु और साध्वी की घनिष्ठता की शंका उत्पन्न हो सकती है। वशीकरण आदि मंत्रप्रयोग द्वारा साध्वी के शील में विघ्न या व्याघात उत्पन्न किया जा सकता है क्योंकि मांत्रिकजन वस्त्र के आधार पर जिसका वह है, उसे प्रभावित, अभिभूत कर सकता है।
ऐसी आशंकित दुष्कृतियों के निवारण की दृष्टि से उपर्युक्त कार्य प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
स्थावरकाय हिंसा विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्ख पुढवीकायस्स वा आउक्कायस्स वा अगणिकायस्स वा वाउकायस्स वा वणप्फइकायस्स वा कलमायमवि समा(रं)रभइ समारभंतं वा साइज्जइ॥८॥
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