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निशीथ सूत्र
कठिन शब्दार्थ - कलमायमवि - कलाय संज्ञक वृत्ताकार दाने (मटर) जितना भी जरा भी, समा(रं) भइ समारंभ विराधना करता है ।
भावार्थ - ८. जो भिक्षु पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय या वनस्पतिकाय की जरा भी हिंसा करता है, विराधना करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
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विवेचन - जब मुमुक्षु दीक्षार्थी प्रव्रज्या या दीक्षा स्वीकार करता है तभी वह 'सव्वं साव जोगं पच्चक्खामि' इस प्रतिज्ञा वाक्य के अन्तर्गत सभी स्थावर त्रस (जंगम) प्राणियों की विराधना, हिंसा से मन, वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदित पूर्वक विरत हो जाता है।
सामान्यतः त्रस प्राणी तो हिलते डुलते, त्रास पाते प्रतीयमान हैं. किन्तु तिष्ठन्तीति स्थावराः' - सर्वथा स्थितिशील जीव इस रूप में प्रतीत नहीं होते । प्रतीयमानता, अप्रतीयमानता गौण है । वैसा हो या न हो, हिंसा सर्वथा वर्जित है। क्योंकि -
" सव्वे पाणा वि इच्छन्ति जीवियुं ण मरिज्जिउं ।
तम्हा पाणिवह घोर्ट, णिग्गंथा वज्जयंति णं ॥ "
के अनुसार छोटे-बड़े सभी प्राणी जीना चाहते हैं, सभी में जिजीविषा है कोई मरना नहीं चाहता। अतः प्राणियों का वध, हिंसन, उत्पीड़न निर्ग्रन्थों के लिए सदैव वर्जित है।
जैन आगमों में यह स्वर पुनः पुनः मुखरित है कि साधु या. भिक्षु अपनी संयम यात्रा में जरा भी विचलित न होता हुआ उत्तरोत्तर मोक्षाभिमुख लक्ष्य की ओर बढता जाए। इसलिए पूर्व प्रतिज्ञात या संकल्पित व्रतों, प्रतिज्ञाओं को सदैव याद दिलाया जाता है । बारम्बार उनके वर्जन का विधान किया जाता है। आत्मश्रेयस् की दृष्टि से उसे पुनरुक्ति नहीं माना जा सकता, वे तो जागरण वाक्य हैं, जितनी ही बार आएं उतनी ही बार प्रेरक सिद्ध होते हैं । इसीलिए इस सूत्र में स्थावर प्राणियों की हिंसा को प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
साधुओं की भिक्षाचर्या, विहारचर्या, शयन, आसन, उच्चार-प्रस्रवण, परिष्ठापन एवं अन्यान्य दैहिक दैनंदिन क्रियाओं में आशंकित हिंसाजन्य दोषों का पूर्व छेद सूत्रों में अनेक रूपों में विस्तारपूर्वक वर्णन आ चुका है, उसे अध्याहृत करते हुए यहाँ यह ज्ञातव्य है कि स्थावर जीवों की भी, जो सामान्यतः पीड़ा पाते अनुभूत नहीं किए जा सकते, हिंसा, विराधना कदापि नहीं करनी चाहिए।
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