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एकादश उद्देशक. - बाल मरण प्रशंसा विषयक प्रायश्चित्त
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में परिणत होता हुआ, बहिरात्मभाव से स्वयं को पृथक् करे। ऐसा न कर पूर्वोक्त उपक्रमों से मरण प्राप्त करने की इच्छा करना, मन में वैसी भावना लाना आत्मपराभव या पराजय है।
भिक्षु के जीवन में ऐसा कदापि न हो, वह किसी भी मानसिक विपन्नतायुक्त स्थिति में आत्मस्वरूप से विचलित, स्खलित होता हुआ अकाल मृत्यु को प्राप्त कर दुर्गति का भाजन न बने, इस हेतु इस सूत्र में इस प्रकार के प्रयत्नों द्वारा स्वयं मृत्यु का वरण करना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
उपर्युक्त रूप में मृत्यु को प्राप्त करने वाले के आत्मपरिणाम इतने दूषित, मलिन और निम्न हो जाते हैं, जिससे उसके घोर कर्मबंध होता है, अधोगति को प्राप्त करता है।
सूत्र में प्रयुक्त कठिन शब्दों के अर्थ स्पष्ट कर दिए गए हैं फिर भी गिरिपतन और गिरिप्रस्खंदन के रूप में जो दो बार प्रयोग हुआ है उसका तात्पर्य क्रमशः नैराश्यपूर्ण भावों की सामन्यता एवं तीव्रता से है।
'आत्मघाती महापापी" के अनुसार आत्महत्या करने वाला महापापी माना गया है। उपर्युक्त मृत्यु विषयक दूषित उपक्रम भी आत्महत्या के ही प्रकार हैं। शारीरिक दृष्टि से तीव्रतम कष्ट, रोग, पीड़ा आदि के आने पर उनसे छुटकारा पाने हेतु जो प्राणत्याग करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है।
शास्त्रों में कहा गया है. - जो पीड़ा, दुःख और वेदना को आत्मबल के सहारे सहन करता है, आत्मनिर्जरा करता है। जो वैसी स्थिति में रुदन, क्रंदन करता है, वह नवीन कर्मों को संचित करता है। उनसे घबराकर मरण प्राप्त करना तो अत्यधिक निन्द्य, परित्याज्य है ही, वैसा सोचना तक दोष है। ___ व्याख्याप्रज्ञप्ति तथा स्थानांग सूत्र में भी आत्महत्यामूलक इन मरण विषयक उपक्रमों को दोषयुक्त एवं परिहेय बतलाया गया है।
इस प्रसंग में यह ज्ञातव्य है - यदि शील एवं संयमरक्षा हेतु स्वयं मृत्यु का वरण करना पड़े तो वह आत्महत्या या दोष नहीं है। क्योंकि वैसा करने में मन में संयम पालन के उत्कृष्ट भाव सन्निहित रहते हैं।
॥ इति निशीथ सूत्र का एकादश उद्देशक समाप्त॥
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