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निशीथ सूत्र
भावार्थ - ९५. जो भिक्षु पर्वत की चोटी से गिरने, मरुभूमि में गिरने, नदी या खड्डे में गिरने, पेड़ की शाखा से गिरने, पर्वत के शिखर से छलांग लगाकर गिरने, मरुभूमि में ऊँचे स्थान से कूदकर गिरने, नदीतट या गर्त में छलांग लगाकर कूदने, वृक्ष से कूदकर गिरने, नदी, कूप आदि में प्रवेश करने, अग्नि में प्रवेश करने, नदी, कूप, सरोवर या अग्नि में कूदकर प्रवेश करने, जहर लेने, उच्च स्थान से शस्त्र (तलवार आदि) पर गिर पड़ने, गले में वस्त्र, रस्सी आदि से फाँसी लगाकर मरने, पुन: उसी भव को प्राप्त करने हेतु निदानपूर्वक मरने, तीर, भाले आदि हथियार की तीक्ष्ण नोक से मरने या मिथ्यादर्शन शल्य आदि दोषों के अनालोचन से पश्चात्तापपूर्वक मरने, आकाशस्थ वृक्ष आदि की शाखा से लटककर (फंदा लगाकर) मरने, गिद्ध आदि मांसलुब्ध प्राणियों से स्वयं को नुचवा कर मरने यावत् इसी प्रकार के अन्यान्य उपक्रम युक्त बालमरण की प्रशंसा करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। . ___ इस प्रकार उपर्युक्त ९५ सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त स्थान का, तद्गत दोषों का सेवन करने वाले भिक्षु को अनुद्घातिक परिहार-तप रूप गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार निशीथ अध्ययन (निशीथ सूत्र) में एकादश उद्देशक परिसमाप्त हुआ।
विवेचन - जीवन में अत्यधिक मानसिक पीड़ा, व्यथा, निराशा व्याप्त होने से तीव्र मोहोदयवश व्यक्ति अपने जीवन को सर्वथा निस्सार, निरर्थक मानता हुआ स्वयं मौत को स्वीकार करने का दुष्क्रम अपनाता है, जो आत्मदौर्बल्य का, कायरता का परिचायक है। जैन शास्त्रों में ऐसी मौत को बालमरण कहा गया है। वहाँ बाल और पण्डित - इन दो शब्दों का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है। बाल शब्द अज्ञता का तथा पण्डित शब्द विज्ञता - विशिष्ट ज्ञानवत्ता का द्योतक है।
इस सूत्र में जो बालमरण के प्रकार बतलाए गए हैं, उससे प्रकट होता है कि वैसे उपक्रम प्रचलित और समर्थित रहे हैं।
यथार्थ तो यह है कि आत्मा के उदात्त, उच्च, पवित्र परिणामों द्वारा मानसिक व्याकुलता, आतुरता तथा पीड़ा का सामना करते हुए व्यक्ति आत्मस्थ - स्वस्थ बने। आत्मपराक्रम, पुरुषार्थ एवं सदुद्यम का यही तकाजा है कि जब कभी किन्हीं कारणों से हताशा, निराशामय भाव मन में उठे तो व्यक्ति अपने सत्, चित्, आनंदमय स्वरूप का चिन्तन करे, अन्तरात्मभाव
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