________________
एकादश उद्देशक - विरोध युक्त राज्य में गमनागमन विषयक प्रायश्चित्त
२४१
या धर्म संप्रदाय अध्याहृत होते हैं। अर्थात् जिन मत से भिन्न मतवादों की प्रशंसा करना यहाँ फलित होता है।
अपने धर्म सिद्धान्तों में अटल आस्थायुक्त, विश्वास युक्त भिक्षु परमत की प्रशंसा करे, यह उचित, विहित नहीं है, क्योंकि अपने द्वारा स्वीकृत सद्धर्म की गरिमा भीतर ही भीतर मंद होती है। किसी अन्य मतवादी को अथवा उसके अनुयायियों को प्रभावित करने हेतु, अनुकूल बनाने हेतु, उनसे किसी प्रकार का लाभ लेने हेतु भिक्षु अपने मन में उनके मत को अयथार्थ - सत्य न मानता हुआ भी यदि प्रशंसा करे तो यह एक प्रकार से आत्म-विडम्बना का रूप है। अपने शुद्ध, सिद्धान्तनिष्ठ, आचारनिष्ठ धर्म की महिमा का एक प्रकार से अपनोदन है। अत एव उपर्युक्त सूत्र में उसे प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
___ विरोध युक्त राज्य में गमनागमन विषयक प्रायश्चित्त
जे भिक्खू वेरज्जविरुद्धरजंसि सज्जं गमणं सज्जं आगमणं सज्ज गमणागमणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ ७४॥
- कठिन शब्दार्थ - वेरज्जविरुद्धरजसि - द्वैराज-विरुद्ध राज्य - दो राजाओं के पारस्परिक विरोध युक्त राज्य में, सज्जं - सद्य - तत्काल या वर्तमान काल में, गमणं - गमन - जाना, आगमणं - आगमन - आना, गमणागमण - गमनागमन - जाना-आना।
भावार्थ - ७४. जो भिक्षु दो राजाओं के पारस्परिक विरोध युक्त राज्य में जाता है, आता है या जाना-आना. करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। - विवेचन - इस सूत्र में 'वेरज्जविरुद्धरजंसि' पद का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है, जिसका संस्कृत रूप द्वैराज-विरुद्ध राज्य बनता है। प्राकृत व्याकरण के अन्तर्गत संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया के अनुसार वेरज्ज शब्द में 'द्वे' के अन्तर्वर्ती 'द कार' का लोप हो गया है केवल 'वे' बच गया है। इस प्रकार 'द्वराज' पद बनता है। इसमें द्विगु समास है। तदनुसार दो राजाओं का समाहार इस पद से सूचित है, जो अपने उत्तरार्द्ध में आने वाले विरुद्धरजंसि - विरुद्ध राज्य से संबद्ध है। उसका तात्पर्य उस राज्य से है, जिस पर दो राजाओं का परस्पर विरोध हो, जिसे दोनों अपना-अपना बताते हों तथा युद्ध, विग्रह एवं संघर्ष आदि विषम परिस्थितियाँ आशंकित रहती हों।
ऐसे राज्य में भिक्षु का जाना-आना जो प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, उसका
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org