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निशीथ सूत्र
और 'घ' प्रत्यय के योग से विपर्यास शब्द निष्पन्न होता है। उसका अर्थ वैपरीत्य, व्यतिक्रम या जो जैसा है, उससे विपरीत, भिन्न रूप में प्रकटीकरण है।
स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, युवा, सरोगरुग्ण या अस्वस्थ, नीरोग - स्वस्थ, सुरूप - सुन्दर रूप युक्त, कुरूप - कुत्सित रूप युक्त आदि जैसी भी अवस्था हो, उससे विपरीत, भिन्न अवस्था निष्पादित करना, व्यक्त करना स्वरूप का विपर्यास है। ऐसा करने के पीछे माया, कुतूहल, आकर्षण, प्रदर्शन तथा भ्रमोत्पादन आदि कारण संभावित हैं, जो अध्यात्म - साधना के प्रतिकूल हैं, आत्म-श्रेयस् में बाधक हैं, प्रवंचना या छलना के द्योतक हैं। ___भिक्षु कभी भी अपने को विपर्यस्त रूप में व्यक्त, प्रकट या प्रदर्शित न करे। अपने स्वरूप को आवृत कर, दूसरे प्रकार से व्यक्त करना सत्य का वैपरीत्य है। .
भिक्षु अन्य का भी स्वरूप विपर्यास न करे, विपरीत रूप में निष्पादित, व्यक्त न करे, न अनुमोदन ही करे, क्योंकि ऐसा करता हुआ भिक्षु अपने शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल, निर्द्वन्द्व साधना पथ से विचलित होता है।
परमत प्रशंसन विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू मुहवण्णं करेइ करेंतं वा साइजइ॥ ७३॥ . कठिन शब्दार्थ - मुहवण्णं - मुखवर्ण - आर्हत् मत से अन्य मत की प्रशंसा।
भावार्थ - ७३. जो भिक्षु जिनेश्वर देव भाषित भिन्न - अन्य मत की प्रशंसा करता है या प्रशंसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त 'मुहवण्ण' पद बहुत महत्त्वपूर्ण है। मुह - मुख तथा वण्ण - वर्ण - इन दो शब्दों के योग से यह बना है। मुख के खाना, पीना, बोलना आदि कई कार्य हैं। उनमें बोलना सबसे मुख्य है, क्योंकि उसकी सृष्टि, अभिव्यक्ति में मुख की सर्वाधिक क्रियाशीलता रहती है। ___ अभिधा शक्ति के अनुसार उसका सामान्य अर्थ वागिन्द्रिय जनित वाणी, वाक्य विन्यास या शब्द समवाय है। ,
लक्षणा शक्ति के अनुसार इसका अर्थ वाणी द्वारा विशिष्टता व्यक्त करना, अतिशय दिखलाना आदि होता है। ऐसा करने में प्रशंसा की दृष्टि से जैसा मन में आए, वैसा बोल देना संभावित है। इस परिप्रेक्ष्य में जिनेन्द्र देव भाषित सिद्धान्त युक्त मत या धर्म से भिन्न मत
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