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निशीथ सूत्र
प्रस्तुत सूत्र में धर्म की निंदा को प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। भिक्षु जीवन में दीक्षित, धर्माराधना में समर्पित व्यक्ति धर्म की निंदा करे, यह कल्पना ही कैसे की जा सकती है? धर्म तो उसका जीवनीय तत्त्व है, प्राण है, मानव-मन बड़ा चंचल है, यदि वह आत्मगुणोपेत हो तो सुस्थिर एवं सत्संकल्पनिष्ठ रहता है, यदि वह बहिर्गामी हो तो अपने स्वरूप को भूल जाता है, जिन सिद्धान्तों पर उसका जीवन समर्पित है, उनके संबंध में भी अकीर्तिकर, निंदास्पद वचन बोलने लगता है। भिक्षु के जीवन में वैसी स्थिति कदापि न आए, यह इस सूत्र का सार है।
. अधर्म की प्रशंसा करने का प्रायश्चित जे भिक्खू अधम्मस्स वण्णं वयइ वयं वा साइजइ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - अधम्मस्स - अधर्म का, वण्णं - वर्णवाद - प्रशंसा, कीर्ति।
भावार्थ - १०. जो भिक्षु अधर्म की प्रशंसा करता है या प्रशंसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - जिस प्रकार भिक्षु को धर्म की अवहेलना, निंदा नहीं करनी चाहिए, उसी प्रकार उसे अधर्म की प्रशंसा, श्लाघा नहीं करनी चाहिए। हिंसा एवं असत्य आदि का प्रतिपादन करने वाले सिद्धान्त, शास्त्र तथा हिंसा, असत्य और परिग्रह आदि पर आश्रित तथाकथित धार्मिक चर्या, उस पर गतिशील तापस, गृहस्थ आदि की प्रशंसा करना, गुण-कीर्तन करना अधर्म का वर्णवाद है।
भिक्षु ने असत् सिद्धान्तों एवं सावध कार्यों का जीवनभर के लिए तीन करण, तीन योगपूर्वक परित्याग किया है, उन्हीं की वह यदि प्रशंसा करे तो कितनी विपरीत बात है। उसे वैसा कदापि नहीं करना चाहिए। वैसी प्रतिकूल, दूषित मानसिकता से भिक्षु अपने को सर्वथा बचाए रखे, इस सूत्र का यह अभिप्राय है।
अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के पाद आमर्जनादि विषयक प्रायश्चित्त
जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारस्थियस्स वा पाए आमजेज वा पमज्जेज वा आमजंतं वा पमजंतं वा साइजइ। एवं तइयउद्देसगगमेण णेयव्वं जाव जे भिक्खू गामाणुगाम दूइज्जमाणे अण्णउत्थियस्स वा गारस्थियस्स वा सीसदुवारियं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ॥ ११-६६॥
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