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. एकादश उद्देशक - धर्म की निंदा करने का प्रायश्चित्त
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पात्र की आवश्यकता हो जाए, समीपवर्ती स्थान में प्राप्त न हो सके तो भिक्षु आधे योजन तक पात्र की गवेषणा हेतु जा सकता है, उस सीमा के अन्तर्गत निर्दोष एवं निरवद्य विधि से वह पात्र ले सकता है। इस सीमा से आगे जाने में मर्यादा-लंघन का दोष है, अत एव वैसा करना प्रायश्चित्त योग्य है। ___- यदि पात्र की आवश्यकतावश भिक्षु गवेषणा हेतु जाने को उद्यत हो, किन्तु जिस दिशा में पात्र प्राप्त होने की संभावना हो, उस ओर का मार्ग सिंह, उन्मत्त हाथी तथा सर्प आदि हिंसक, घातक जन्तुओं के कारण आशंकित या अवरुद्ध हो अथवा उस मार्ग में पानी एकत्रित होने से वहाँ से निकलने में रूकावट उत्पन्न हो गई हो तो वैसी स्थिति में भिक्षु के लिए पात्र की अत्यधिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए यदि कोई आधे योजन की मर्यादा के अन्तर्गत उसे लाकर दे, वैसी स्थिति में भिक्षु उसे गृहीत कर सकता है, ऐसा करना सूत्र वर्णित दोषयुक्त नहीं है। किन्तु यदि आधे योजन की मर्यादा को लंधित कर वैसा किया जाए तो पात्र ग्रहण करना दोषयुक्त है, प्रायश्चित्त योग्य है। आधे योजन की मर्यादा से भी उपर्युक्त कारणों से पात्र को ग्रहण करता है तो उसका भी लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त तो समझना ही चाहिए।
इन सूत्रों में साधु जीवन के लिए मर्यादा की महत्ता एवं अनुलंघनीयता का विशेष रूप से सूचन है।
धर्म की निंदा करने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू धम्मस्स अवण्णं वयइ वयंतं वा साइज्जइ॥९॥ . कठिन शब्दार्थ. - धम्मस्स - धर्म का, अवण्णं - अवर्णवाद - निंदा।
भावार्थ - ९. जो भिक्षु धर्म का अवर्णवाद बोलता है - निंदा करता है या निंदा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - निंदा कुत्सित वृत्ति है, मानसिक विकार है। भिक्षु किसी की भी निंदा नहीं करता। वह तो आत्म-गुणों के रमण में लीन रहता है, दूसरों के अवगुण लक्षित कर उनका बखान करना उसका कार्य नहीं है। ..
-धर्म की निंदा करना तो भिक्षु के लिए अत्यन्त जघन्य और हीन कोटि का कार्य है। जिनश्रुत-चारित्रमूलक धर्म में - ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना में वह अधिष्ठित होता है, उन्हीं की यदि वह निंदा करने लग जाए तो उसके लिए कितनी बुरी बात है। उसे तो ज्ञान का, चारित्र का सदा आदर करना चाहिए, गुण-कीर्तन करना चाहिए।
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