________________
निशीथ सूत्र
इन सूत्रों में आए हुए पात्र विषयक वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में भारतवर्ष में समृद्धि, वैभव और संपत्ति का अत्यधिक प्राचुर्य था । रजत और स्वर्ण की तो बात ही क्या, रत्नों, मणियों तथा हीरों जैसी बहुमूल्य वस्तुओं से भी पात्र तैयार होते थे। इसी कारण भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था तथा उसी के लोभ में भारतवर्ष पर अनेक वैदेशिक आक्रान्ताओं ने आक्रमण किए, लूटपाट की।
२३४
ऐसे वैभव, विलासमय, संपत्तिबहुल सामाजिक लौकिक वातावरण में रहते हुए भी जैन भिक्षु भौतिक वैभव से, परिग्रह से सर्वथा अलिप्त रहते थे। उनकी वह अलिप्तता बरकरार रहे, इस दृष्टिकोण से ये सूत्र बड़े प्रेरक रहे हैं और रहेंगे ।
पात्र हेतु अर्धयोजनमर्यादालंघन विषयक प्रायश्चित्त
जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ पायवडियाए गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ ॥७ ॥ जे भिक्खू परमद्धजोयणमेराओ सपच्चवायंसि पायें अभिहडं आह दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ ८ ॥
कठिन शब्दार्थ - अद्धजोयणमेराओ - आधे योजन की मर्यादा से, पायवडियाए - पात्र ग्रहण करने की इच्छा से, गच्छड़ जाता है, सपच्चवायंसि सप्रत्यवाय - विघ्नयुक्त, पायं - पात्र, अभिहडं - अभिहृत कर लेकर, आहड्ड - आहृत्य लाकर, दिज्जमाणं - दिए हुए ।
भावार्थ - ७. जो भिक्षु पात्र ग्रहण करने की इच्छा से आधे योजन की मर्यादा को लंघित कर आगे जाता है अथवा जाते हुए का अनुमोदन करता है।
८. जो भिक्षु प्रत्यवाय - विघ्न या बाधायुक्त मार्ग के कारण आधे योजन की मर्यादा को लांघकर लाए हुए, दिए जाते हुए पात्र को ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है ।
-
Jain Education International
-
ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भिक्षु का जीवन अनुशासन, मर्यादा और नियमबद्धता से युक्त होता है । अनुशासनहीन, मर्यादावर्जित एवं नियमविरहित जीवन उच्छृंखल बन जाता है । संयमी साधक के लिए उच्छृंखलता उसके व्रताराधनामय जीवन में अतीव बाधक है।
भिक्षु के लिए पात्र एक अनिवार्य उपकरण है। अपरिग्रह एवं अकांचिन्यपूर्ण चर्या के कारण भिक्षु पात्र भी गृहस्थ से भिक्षा के रूप में स्वीकार करता है।
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org