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एकादश उद्देशक - स्व-पर विभीतिकरण विषयक प्रायश्चित्त
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भावार्थ - ११-६६. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के पैरों का एक बार या अनेक बार आमर्जन करता है अथवा करने वाले का अनुमोदन करता है। इस प्रकार तीसरे उद्देशक के (सूत्र १६ से ७१) के समान अलापक जान लेने चाहिए यावत् जो भिक्षु ग्रामानुग्राम विहार करते समय अन्यतीर्थिक या गृहस्थ का मस्तक ढांकता है या ढांकने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है)
विवेचन - इन (११-६६) सूत्रों में अन्यतीर्थिक तथा गृहस्थ के विविध परिकर्म विषयक प्रायश्चित्त का वर्णन हुआ है। भिक्षु द्वारा वैसा किया जाना साधु समाचारी के प्रतिकूल है, उससे संयम की विराधना होती है। __ ऐसी त्याज्य और परिहेय प्रवृत्तियों में भिक्षु तभी संलग्न होता है, जब वह अन्तरात्म-भाव से पृथक् होकर बहिरात्म-भाव में संलग्न होता है। वासना; काम-कौतुहल बाह्य सज्जा, भौतिक हर्षोल्लास, कुत्सित अन्तर्वृत्तियों का परिपोषण, बाह्य भोगात्मक मानसिकता की अभिव्यक्ति इत्यादि के कारण ऐसे घिनौने कृत्य में भिक्षु का प्रवृत्त होना अत्यन्त लज्जास्पद एवं दुःखास्पद है। स्वाध्याय, ध्यान, तप, सधर्मचर्या आदि में भिक्षु के जीवन का क्षण-क्षण बीतना चाहिए। यदि ऐसे कृत्यों में उसका समय और उद्यम लगता है तो यह बड़ी ही उपाहासास्पद स्थिति है। भिक्षु के जीवन में वैसा कदापि घटित न हो, इन सूत्रों से यही प्रेरणा प्राप्त हेती है। क्योंकि दोष तथा प्रायश्चित्त का भय भिक्षु का आत्मस्थ रहने में सहायक होता है।
स्व-पर विभीतिकरण विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू अप्पाणं बीभावेइ बीभावंतं वा साइजइ॥६७॥ जे भिक्खू परं बीभावेइ बीभावंतं वा साइजइ ॥ ६८॥ कठिन शब्दार्थ - अप्पाणं - अपने आपको, बीभावेइ - विभापत - भयभीत करता है।
भावार्थ - ६७. जो भिक्षु अपने आपको विभीत - विशेष रूप से भययुक्त करता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
६८. जो भिक्षु दूसरे को भयभीत करता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - समग्र सांसारिक सुखों, सुविधाओं एवं अनुकूलताओं का परित्याग कर पंचमहाव्रतात्मक संयम-साधनामय जीवन को स्वीकार करना बड़े ही साहस, आत्मबल और पुरुषार्थ का कार्य है। ऐसे जीवन को स्वीकार करने वाला साधक सदैव निर्भीक रहता है। वह
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