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दशम उद्देशक - पर्युषणकाल में लोच न करने एवं उपवास....
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पर्युषणकाल में लोच न करने एवं उपवास न रखने का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू पजोसवणाए गोलोमाइं पि वा(बा)लाई उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइजइ॥४४॥
जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तिरियं पि आहारं आहारेइ आहारेंतं वा साइज्जड़॥४५॥
कठिन शब्दार्थ - गोलोमाइं - गाय के रोम, वा(बा)लाई - बाल - केश, उवाइणावेइधारण करता है - रखता है, इत्तिरिय - इत्वरिक - अल्प या थोड़ा, पि - अपि - भी।
भावार्थ - ४४. जो भिक्षु पर्युषण के दिन गाय के रोमों जितने भी बाल रखता है या रखते हुए का अनुमोदन करता है।
४५. जो भिक्षु पर्युषण के दिन थोड़ा भी - जरा भी आहार करता है या आहार करते हुए का अनुमोदन करता है। ' ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - जैन भिक्षु के जीवन के सभी क्रिया कलाप संयमानुप्राणित और तपोवर्धक हों, यह वांछित है। अपनी कठोर चर्या के अन्तर्गत जैन भिक्षु अपने मस्तक आदि के केशों को बढ़ जाने पर यथासमय स्वयं अपने हाथों से उत्पादित करते हैं या अपने किसी सहवर्ती भिक्षु से वैसा करबाते हैं। बालों को काटने या हटाने में उस्तरे आदि किसी उपकरण का वे उपयोग नहीं करते। . . ___बालों को उखाड़ना बहुत पीड़ाजनक होता है। भिक्षु उस पीड़ा को आत्मपरिणामों की दृढ़ता, सहिष्णुता के साथ सुस्थिर भावपूर्वक सहन करता है, जो तपश्चरण का एक रूप है, कर्म निर्जरण का हेतु है।
पर्युषणकाल में करणीय या अनुसरणीय विषयों में केशलुंचन (केश-लोच) का विशेष रूप से विधान हुआ है। यहाँ आए दो सूत्रों में से पहले सूत्र में इसी तथ्य का वर्णन है। संवत्सरी के दिन गाय के रौओं जितने छोटे भी मस्तक और दाढी-मूंछ के बाल नहीं रहने चाहिए। अर्थात् उनका पूरी तरह लोच कर लेना चाहिए। वैसा नहीं करने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है।
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