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दशम उद्देशक - आचार्य आदि के प्रति अविनय-आशातनादि का प्रायश्चित्त
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साधु मन-वचन-काय से किसी. को पीड़ा नहीं पहुँचाता। सभी के साथ उसका प्रशान्त भाव युक्त, शालीन वचन युक्त व्यवहार होता है। __ आचार्य, उपाध्याय आदि पूज्य पुरुषों के प्रति तो साधु को अत्यन्त श्रद्धा, आदर, विनय और स्नेह के साथ बोलना चाहिए।
इन सूत्रों में आचार्य, उपाध्याय आदि के प्रति साधु द्वारा रोष युक्त, कठोर, आध्यात्मिक स्नेह वर्जित, रूक्ष वाणी बोला जाना दोषयुक्त, प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
ऐसी वाणी आशातना दोष के अन्तर्गत स्वीकार की गई है। आशातना का तात्पर्य अनुचित, विपरीत वचन तथा व्यवहार द्वारा मानसिक खेद या क्लेश उत्पन्न करना है। दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में आशातना के तैंतीस भेदों का वर्णन किया गया है। साधु की वाणी उन सब दोषों से विवर्जित, विरहित हो, यह वांछित है। ... नीतिशास्त्र में कहा गया है :
'वाण्येका समलंकरोति पुरुष या संस्कृता धार्यते' अर्थात् जो वाणी उत्तम संस्कार युक्त होती है, वह बोलने वाले व्यक्ति को अलंकृत करती है। अलंकारों, आभरणों की तरह उसे विभूषित, सुशोभित करती है। - इन सूत्रों में से प्रथम सूत्र में 'आगाढ' पद का प्रयोग हुआ है। यह 'आ' उपसर्ग और 'गाढ' विशेषण के योग से बना है। 'आ' उपसर्ग समन्तात् या अत्यर्थता का बोधक है। 'गाढ' शब्द कठोर का वाचक है। 'अत्यर्थं गाढम् - आगाढम्' - जो अत्यन्त कठोरतायुक्त होता है, उसे आगाढ कहा जाता है, जिसके मूल में रोष होता है। ____ इन सूत्रों में से चतुर्थ सूत्र में 'आशातना' पद का प्रयोग हुआ है। इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति इस प्रकार है :
- "आचार्यदिक प्रति विनयवैयावृत्यादिकरणेन यत् फलं प्राप्यते, तत् फलमाशातयति विनाशयति, इति - आशातना। यद्वा ज्ञानादिगुणाः, आ - सामस्त्येन शात्यन्ते - अपध्वस्यन्ते यया, सा आशातना।"
अर्थात् आचार्य आदि के प्रति विनय, वैयावृत्य - सेवा-परिचर्या आदि करने से जो उत्तम फल प्राप्त होता है, उसे जो शातित करती है, विनष्ट करती है, उसे आशातना कहा जाता है अथवा ज्ञान आदि गुण. जिसके द्वारा विनष्ट, अपध्वस्त होते हैं, वह आशातना के रूप में अभिहित है।
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