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णवमो उद्देसओ - नवम उद्देशक
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राजपिण्ड ग्रहण एवं सेवन विषयक प्रायश्चित्त
भिक्खू पिंडं ण्हइ गेण्हंतं वा साइज्जइ ॥ १॥ जे भिक्खू रायपिंडं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥ २ ॥ कठिन शब्दार्थ - रायपिंडं - राजपिण्ड, भुंजइ भुक्त करता है, सेवन करता है भावार्थ १. जो भिक्षु राजपिण्ड ग्रहण करता है या ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है।
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२. जो भिक्षु राजपिण्ड का सेवन करता है या सेवन करते हुए का अनुमोदन करता है । ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है ।
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विवेचन - पिण्ड शब्द भ्वादिगण की आत्मनेपदी तथा चुरादिगण की उभयपदी 'पिण्ड्' धातु के आगे ‘अच्' प्रत्यय लगाने से बनता है । “पिण्ड्यते - संश्लिष्यते इति पिण्डम् " विकीर्ण पदार्थ का पिण्डित, संश्लिष्ट या एकत्रित रूप पिण्ड कहा जाता है। चावल, दाल, रोटी, साग आदि जब भोजन के रूप में खाए जाते हैं तब उन्हें ग्रास या कौर के रूप में पिण्डित कर मुँह में डाला जाता है। इस कारण 'पिण्ड' भोजन या आहार के अर्थ में निहित हो गया। जैन आगमों में इसी अर्थ में पिण्ड शब्द का प्रयोग होता रहा है।
इन सूत्रों में राजपिण्ड लेना और उसका सेवन करना सदोष, प्रायश्चित्त योग्य. बतलाया गया है ।
यहां पर राजपिण्ड में मूर्द्धाभिषिक्त ( अमात्य आदि पांच पदवी वालों से युक्त मुकुटबंध) राजा के वहां के आहार आदि को राजपिण्ड में समझना चाहिये। ऐसे बड़े राजा के वहां का आहार आदि २४वें तीर्थंकर के शासनवर्ती साधु साध्वियों को ग्रहण करना नहीं कल्पता है। अतः इससे जागीरदार, ठाकुर आदि के यहां का आहार आदि ग्रहण करने का निषेध नहीं समझना चाहिए। अतिमुक्तक कुमार के पिता विजयंसेन जागीरदार आदि के समान छोटे राजा होने से उनके यहां से आहार आदि ग्रहण करना निषिद्ध नहीं होने से ही गौतमस्वामी ने वहां से आहार ग्रहण किया था । वर्तमान में राजतंत्र नहीं होने पर भी देश व प्रांत के प्रमुख नेता - राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री राजा जैसे समझे जा सकते हैं। इनके शासकीय आवासों से आहार आदि को लेना निषिद्ध समझना चाहिए ।
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