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निशीथ सूत्र
१८. जो भिक्षु क्षत्रियकुलोत्पन्न, शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय एवं मूर्धाभिषिक्त राजा के उत्सृष्टपिण्ड, संसृष्टपिण्ड, अनाथपिण्ड, कृपणण्डि या वनीपकपिण्ड ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। .. .
ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
उपर्युक्त १८ सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त-स्थान का, तद्गत दोषों का सेवन करने वाले भिक्षु को अनुद्घातिक परिहार तप रूप गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार निशीथ अध्ययन (निशीथ सूत्र) में अष्टम उद्देशक परिसमाप्त हुआ।
विवेचन - इन सूत्रों में क्षत्रिय वंशोत्पन्न, शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय, मूर्धाभिषिक्त राजा के द्वारा आयोजित दावतों, पितृ-पितामहादि की स्मृति में आयोजित भोजों, लौकिक देवों के निमित्त समायोजित देवभोजों, स्तूप, वृक्ष, समुद्र, सरोवर आदि पर दैविक, सामाजिक, लौकिक प्रसंगों को लक्षित कर आयोजित भोजों से, अश्वशाला आदि विभिन्न शालाओं से तथा विविध पर्यटन-स्थलों से, विश्राम-स्थलों से, दूध, दही, घृत आदि के भण्डारगृहों से और विविध कोटि के याचकवृन्द हेतु पकाए गए, रखे गए खाद्य पदार्थों में से भिक्षु के लिए आहार ग्रहण करना दोषपूर्ण, प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। क्योंकि इन भोजात्मक समारोहों में आरम्भ समारम्भमूलक अनेक सावध कार्य चलते ही रहते हैं। वहाँ से आहार लेने में और भी अनेक दोष आशंकित हैं।
दीन, कृपण, याचक, वनीपक आदि हेतु सुरक्षित भोज्य पदार्थों में से आहार लेने से उनके लिए अंतराय होता है। उनकी भोजन प्राप्ति में विघ्न होता है, क्योंकि भिक्षु को आया देखकर उन्हें गौण कर दिया जाता है इत्यादि अनेक ऐसी स्थितियाँ हैं, जिनसे भिक्षुओं की आहारचर्या की शुद्धता बाधित होती है।
॥ इति निशीथ सूत्र का अष्टम उद्देशक समाप्त॥
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