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अष्टम उद्देशक - राजमहोत्सव आदि से आहार ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त
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आश्रयहीन - अनाथजनों को देने के लिए रखा हुआ भोजन, किविणपिंडं - कृपणंपिण्ड - दीन-दुःखियों को देने के लिए रखी गई भोज्य सामग्री, वणीमगपिंड - वनीपकपिण्ड - याचकों को देने हेतु रखे हुए चावल आदि।
नोट : 'उस्सट्ठपिंड' का एक अर्थ यह भी किया जाता है - "झूठा पिंड - खाये हुए भोजन में से बचा हुआ।" 'संसट्ठपिंड' का एक अर्थ ऐसा भी किया जाता है - बने हुए भोजन में से बचा हुआ। अथवा बड़े व्यक्तियों के द्वारा आहार को मात्र छू लेने से भी . वह खाया हुआ माना जाता है।
भावार्थ - १४. जो भिक्षु क्षत्रियकुलोत्पन्न, शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय एवं पितृ-पितामहादि क्रम से राज्याभिषिक्त राजा के द्वारा समायोजित गोठों या दावतों में, पितृ पिंडदान विषयक भोजों में, इन्द्र, स्कन्ध, रुद्र, मुकुन्द, भूत, यक्ष, नाग - इन विविध देवों को उद्दिष्ट कर आयोजित उत्सवों में, स्तूप, चैत्य, वृक्ष, पर्वत, गिरिकन्दरा, कूप, तडाग - तालाब, हृद - बड़ा सरोवर या झील, नदी, समुद्र, स्वर्ण आदि की खनि (खान) - इन्हें उद्दिष्ट कर आयोजित उत्सवों में या उसी प्रकार के, विविध बड़े-बड़े उत्सवों या समारोहों में से अशन-पान-खाद्यस्वाध रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हए का अनमोदन करता है।
१५. जो भिक्षु (भिक्षार्थ) घूमता हुआ क्षत्रियकुलोत्पन्न, शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय एवं मूर्धाभिषिक्त राजा के पर्यटन आदि हेतु निर्मापित बड़े भवन से या छोटे भवन से अशनपान-खाद्य-स्वाध रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। ....
१६. जो भिक्षु क्षत्रियकुलोत्पन्न, शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय एवं मूर्धाभिषिक्त राजा की अश्वशाला, गजशाला, मंत्रणाशाला, गुह्यशाला, रहस्यशाला या मैथुनशाला. - अन्तःपुर - एतद्गत इनमें प्राप्य अशन-पान-खाद्य-स्वाध रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है।
१७. जो भिक्षु क्षत्रियकुलोत्पन्न, शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय एवं मूर्धाभिषिक्त राजा के विनश्वरजल्दी विकृत होने वाले तथा अविनश्वर - लम्बे समय तक टिकने वाले भोज्य पदार्थों के संग्रह में से दूध, दही, मक्खन, घृत, तेल, गुड़, खांड, शक्कर, मिश्री या कोई अन्य भोज्य पदार्थ ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है।
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