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सप्तम उद्देशक - चिकित्सा विषयक प्रायश्चित्त
परिव्राजकों या तापसों या संन्यासियों के स्थान इनमें से किसी में बिठाकर या सुलाकर उसे अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार खिलाए या पिलाए अथवा खिलाते -पिलाते हुए का अनुमोदन करे ।
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ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन
यहाँ प्रयुक्त परियावसहेसु - परिव्राजकावसथेषु पद में तत्पुरुष समास हैं । परिव्राजक + अवसथ इन दो शब्दों के मेल से यह बना है। परिव्राजक शब्द 'परि' उपसर्ग और 'व्रज्' धातु से बनता है । "व्रज्" धातु गमनार्थक है । “परिसमन्तात, सर्वं विहाय व्रजति गच्छति संन्यासमार्गे सः परिव्राजकः " जो सबका त्याग कर संन्यास के मार्ग पर जाता है, उसे परिव्राजक कहा जाता है। इस प्रकार 'परि' पूर्वक व्रज् धातु संन्यास लेने के अर्थ में है ।
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समन्तात्, सर्वप्रकारेण स्थीयते यत्र सः अवस्थः " जहाँ स्थित या आवास किया जाता है, उसे अवसथ कहा जाता है। अवसथ निवास स्थान या आश्रम का वाचक है।
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"परिव्राजकानाम् अवसथः इति परिव्राजकावसथः, तेसु परिव्राजकावसथेसु" इस विग्रह के अनुसार यह षष्ठी तत्पुरुष है।
प्राचीनकाल में अन्यतीर्थिकों के अनेक संप्रदाय थे, जिनमें परिव्राजक, तापस आदि मुख्य थे। औपपातिक सूत्र में उपपात के संदर्भ में परिव्राजकों का वर्णन हुआ है। वहाँ अम्बड नामक परिव्राजक का विशेष रूप से उल्लेख है। भगवान् महावीर कालीन अन्यतीर्थक परंपराओं के अध्ययन की दृष्टि से औपपातिक सूत्र का वह संदर्भ विशेष रूप से पठनीय है। चिकित्सा विषयक प्रायश्चित्त
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जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णयरं तेइच्छं आउट्टइ आउट्टंतं
वा साइज्जइ ॥ ८२॥
कठिन शब्दार्थ - तेइच्छं - चिकित्सा, आउट्टइ - आवर्तित - निष्पादित करता है । भावार्थ - ८२. जो भिक्षु मैथुन सेवन करने की कांक्षा से अपनी या स्त्री की चिकित्सा
* औपपातिक सूत्र, सूत्र ७६ ( आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ) ← औपपातिक सूत्र, सूत्र ८२ ( आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर.)
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