________________
१६०
निशीथ सूत्र
आवर्तित करता है अथवा चिकित्सा आवर्तित करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - आयुर्वेद में दोषज एवं कर्मज के रूप में रोग दो प्रकार के बतलाए गए हैं"दोषेर्जायन्ते - इति दोषजाः" वात, पित्त एवं कफ इन तीन दोषों से जो रोग उत्पन्न होते हैं, उन्हें दोषज कहा जाता है। दोषों के आधार पर उनके चार भेद होते हैं - वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज। वात, पित्त तथा कफ के प्रकोप, वैषम्य या असंतुलन से जो रोग उत्पन्न होते हैं, उन्हें क्रमशः वातज, पित्तज एवं कफज कहा जाता है। इन तीनों का जब एक साथ विकार होता है, उसे सन्निपात कहा जाता है। उससे होने वाले रोग सन्निपातज कहे जाते हैं। - चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, शार्ङ्गधर संहिता, अष्टांगहृदय तथा भाव प्रकाश आदि ग्रन्थों में इन रोगों की विविध रूप में चिकित्सा का वर्णन है। समीचीन चिकित्सा, समुचित पथ्य
और यथेष्ट उपचार से ये रोग यथासंभव मिट सकते हैं। ____ "कर्मभिर्जायन्ते - इति कर्मजाः" जो रोग असातावेदनीय कर्मों के कारण उत्पन्न होते हैं, वे कर्मज कहे जाते हैं। वे चिकित्सा द्वारा नहीं मिट सकते, कर्मभोगोपरान्त ही वे शान्त होते हैं। __यहाँ साधु द्वारा अपनी या स्त्री की चिकित्सा किए जाने का जो उल्लेख हुआ है, वह दोषज रोगों के संदर्भ में है।
अपने को या स्त्री को, जो किसी रोग से ग्रस्त हो, वैसी अवस्था में मैथुन सेवन में अक्षम हो, यह सोच कर कि इसमें मैथुन सेवन बाधित नहीं होगा, साधु द्वारा चिकित्सा किया जाना, उसका अनुमोदन किया जाना कलुषित एवं पापपूर्ण कृत्य है, प्रायश्चित्त योग्य है। ऐसे अशुभोपक्रम में साधु कदापि न पड़े।
पुद्गल प्रक्षेपादि विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अमणुण्णाई पोग्गलाई णीहरइ णीहरं वा साइज्जइ॥ ८३॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए मणुण्णाई पोग्गलाई उवकिरइ उवकिरंतं वा साइजइ॥ ८४॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org