________________
१५८
निशीथ सूत्र
भावार्थ - ७८. जो भिक्षु मैथुन सेवन करने की मानसिकतावश स्त्री को अपनी गोद में या पलंग पर बिठाए या सुलाए अथवा बिठाते सुलाते हुए का अनुमोदन करे।
७९. जो भिक्षु मैथुन सेवन करने की मानसिकतावश स्त्री को गोद में या पलंग पर बिठाकर - सुलाकर उसे अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार अनुग्रासित करे - खिलाए या अनुपानित करे - पिलाए अथवा खिलाते-पिलाते हुए का अनुमोदन करे।
ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - इन सूत्रों में स्त्री के साथ जिस रूप में काम वासनाजन्य अतिहीन कामुक क्रियाएँ किए जाने का. जो वर्णन हुआ है, कोई भी पंचमहाव्रतधारी साधु ऐसा करे, यह कल्पना करना तक कठिन है, किन्तु लोक में कामोद्वेलित, कामोत्कण्ठित व्यक्ति ऐसा करते देखे जाते हैं। वेदमोह के अति तीव्र उदयवश भिक्षु में कभी ऐसी प्रवृत्ति व्याप्त न हो जाए, यही दृष्टिकोण इन सूत्रों में रहा है। वैसी प्रवृत्तियाँ पापमय हैं। जीवन रूपी स्वर्ण पाप रूपी कालुष्य के पश्चात्ताप रूपी अग्नि में जल जाने से ही शुद्ध होता है।
धर्मशाला आदि में स्त्री को बिठाने आदि का प्रायश्चित्त जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा णिसीयावेज वा तुयट्टावेज वा णिसीयावेंतं वा तुयथावेंतं वा साइजइ॥८०॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा णिसीयावेत्ता वा तुयट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अणुग्घासेज वा अणुपाएज वा अणुग्घासेंतं वा अणुपाएंतं वा साइज्जइ॥ ८१॥
कठिन शब्दार्थ - आरामागारेसु - उद्यानों में क्रीड़ा हेतु निर्मित गृहों या भवनों में, परियावसहेसु - परिव्राजकों के अवसथ - स्थान में।
भावार्थ - ८०. जो भिक्षु मैथुन सेवन की कामना लिए स्त्री को धर्मशाला, उद्यानगृह, गाथापतिकुल, परिव्राजकों या तापसों या संन्यासियों के स्थान - इनमें से किसी में बिठाता है या सुलाता है अथवा बिठाते - सुलाते हुए का अनुमोदन करता है।
८१. जो भिक्षु मैथुन सेवन की कामना लिए स्त्री को धर्मशाला, उद्यानगृह, गाथापतिकुल,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org