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सप्तम उद्देशक - अंक एवं पर्यंक पर स्त्री को बिठाने आदि का प्रायश्चित्त
से युक्त काष्ठ या स्थान पर, प्राण सहित छोटे-छोटे द्वीन्द्रिय आदि जीव सहित, बीजों सहित, हरियाली युक्त, ओस नमी सहित, पानी सहित, उत्तिंग संज्ञक कीट विशेष, पनक - लीलन - फूलन, उदक मृत्तिका जल सहित मिट्टी युक्त तथा मकड़ी के जाले से युक्त स्थान पर बिठाता है या सुलाता है अथवा बिठाते - सुलाते हुए का अनुमोदन करता है।
उपर्युक्त रूप में आचरण करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - सचित्त - सजीव भूमि, स्थान, पदार्थ, उपकरण आदि भिक्षु के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। सचित्त के साथ-साथ सचित्त संलग्न पदार्थ भी सचित्त की श्रेणी में आ जाते हैं।
इन सूत्रों में सचित्त भूमि, सचित्त शिला आदि पर साधु द्वारा स्त्री को बिठाए जाने या सुलाए जाने आदि का जो वर्णन आया है, उसमें अहिंसा और ब्रह्मचर्य महाव्रत के खण्डन का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है । अहिंसा का परम आराधक साधु सचित्त का संश्लेष, संस्पर्श आदि कदापि नहीं करता ।
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कामविमूढ मानसिकतावश स्त्री को सचित्त, सचत्ति संलग्न भूमि आदि पर बिठाना, सुलाना आदि साधुत्व के सर्वथा प्रतिकूल हैं। साधु के लिए तो स्त्री का स्पर्श करना तथा उस भवन में रहना तक वर्जित है, जहां स्त्री का चित्र लगा हो। स्त्री के साथ काम कौतुकमय खिलवाड़ करना तो एक ऐसा कार्य है, जिसके संबंध में सुनते ही आत्मा कांप उठती है ।
इसी तथ्य को हृदयंगम करना और ऐसे वर्जनीय, निन्दनीय कार्यों के प्रति भिक्षु के मन में दुराव उत्पन्न करना, इन सूत्रों का हार्द है ।
अंक एवं पर्यंक पर स्त्री को बिठाने आदि का प्रायश्चित्त
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जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकंसि वा पलियंकंसि वा णिसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा णिसीयावेंतं वा तुयट्टावेंतं वा साइज्जइ ॥ ७८ ॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकंसि वा पलियंकंसि वा णिसीयावेत्ता तुयट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अणुग्घासेज वा अणुपाएज्ज वा अणुग्घासेंतं वा अणुपाएंतं वा साइज्जइ ॥ ७९ ॥
पलंग
कठिन शब्दार्थ - अंकंसि अंक में गोद में, पलियंकंसि - पर्यंक पर या मंच (मांचे या खाट ) पर, अणुग्घासेज्ज - अनुग्रासित करे मुँह में ग्रास देवे या खिलाए, अणुपाएज्ज - अनुपानित करे पिलाए ।
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