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सप्तम उद्देशक - वस्त्र निर्माण आदि का प्रायश्चित्त
के चर्म के वस्त्र, एवं ऊँट के चर्म के वस्त्र या प्रावरण, बाघ, चीता या बन्दर के चर्म के वस्त्र, सूक्ष्म, बारीक वस्त्र, रेशम, कपास के वस्त्र, बारीक़ रेशे के वस्त्र, (पटल गले में डालने का वस्त्र), बारीक धागों के वस्त्र, चीन देश के वस्त्र, रेशमी कीड़ों से प्राप्त रेशम से बने वस्त्र, सोने के समान सुन्दर, चमकीले, सोने से चित्रांकित, विविध रूप में चित्रांकित वस्त्र, विभिन्न प्रकार के आभरणों से मण्डित वस्त्र - इनमें से किसी का परिभोग करता है, उपयोग में लेता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - इन सूत्रों में मृग आदि पशुओं के चर्म, ऊन, कपास, (रेशमी ) कीड़े तथा वृक्षों की छाल - इनसे निर्मित होने वाले, तैयार किए जाने वाले वस्त्रों का जो उल्लेख हुआ है, इससे यह प्रकट है कि प्राचीन काल में विविध रूप में वस्त्रों का निष्पादन और उपयोग होता था ।
ऊन, कपास तथा रेशम के धागों से कपड़े बुने जाते थे। प्राचीन काल में चीन देश में रेशम के कपड़ों का प्रचुरता से उत्पादन होता था। वे भारतवर्ष में विशेष रूप से आयात किए जाते थे। अतः प्राकृत एवं संस्कृत ग्रन्थों से रेशमी वस्त्रों के लिए क्रमशः 'चीणांसुए' तथा 'वीणांशुक' शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है ।
भिक्षु देह रक्षा और लज्जा निवारण हेतु ही वस्त्र धारण करता है । सुन्दरता, सजावट, दिखावा, बनावटी शोभा, प्रभाव आदि के लिए वह कीमती, चमकीले, भड़कीले, बहुमूल्य आदि किसी भी प्रकार के वस्त्र कदापि धारण न करे, ऐसा शास्त्रीय विधान है, क्योंकि ये बाह्य प्रदर्शनात्मक उपक्रम संयम में नितान्त बाधक हैं।
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विकराल वेद मोहोदय से उन्मत्त व्यक्ति स्त्रियों को मोहित एवं आकर्षित करने हेतु विविध रूप में अपने को शृंगार - सज्जित करता है । शृंगार-सज्जा में वस्त्रों का विशेष महत्त्व है, जिसका उपर्युक्त सूत्रों में उल्लेख हुआ है।
ऊपर वर्णित वस्त्रों के बनाने में, तैयार करने में अनेक प्रकार के उपक्रम करणीय हैं, जिनमें विविध रूप में जीवों की विपुल विराधना होती है। आसक्ति एवं मोह का अतिशय तो वहाँ है ही । भिक्षु अदम्य कामावेशवश भी ऐसे कुकृत्यों में संलग्न न हो जाए, इस आशंका और आशय को ध्यान में रखते हुए सूत्रकार ने विस्तार से, विविध प्रकार के वस्त्रों का वर्णन करते हुए उन्हें तैयार करना, धारण करना और उपयोग में लेना प्रायश्चित्त योग्य तथा सर्वथा दोषपूर्ण बतलाया है। I
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