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पंचम उद्देशक - रजोहरण के अनियमित प्रयोग का प्रायश्चित्त
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कठिन शब्दार्थ - वत्थं - वस्त्र, पडिग्गहं - प्रतिग्रह - पात्र रखने की झोली, अलं - उपयोग हेतु पर्याप्त - यथेष्ट, थिरं - स्थिर - यथावस्थित - अपने स्वरूप में यथावत् विद्यमान्, धुवं - ध्रुव - चिरकाल पर्यन्त बरतने योग्य, धारणिजं - धारणीय - धारण करने योग्य, रखने योग्य, पलिछिंदिय - प्रतिछिन्न कर - टुकड़े-टुकड़े कर, परिभिंदिय - परिभिन्न कर - प्रस्फोटित कर या फोड़कर, पलिभंजिय - परिभग्न कर - तोड़ कर। ___ भावार्थ - ६३. जो भिक्षु उपयोग हेतु पर्याप्त, अपने स्वरूप में यथावत् विद्यमान, चिरकाल पर्यन्त बरतने योग्य, धारण करने योग्य वस्त्र, पात्र रखने की झोली, कम्बल या पादपोंछन को टुकड़े-टुकड़े कर परठता है अथवा परठते हुए का अनुमोदन करता है।
६४. जो भिक्षु उपयोग हेतु पर्याप्त, अपने स्वरूप में यथावत् विद्यमान, चिरकाल पर्यन्त 'बरतने योग्य, धारण करने योग्य तुम्बिका पात्र, काष्ठ पात्र या मृत्तिका पात्र को फोड़-फोड़कर परठता है या परठते हुए का अनुमोदन करता है।
६५. जो भिक्षु दण्ड; लाठी, अवलेहनिका या बांस की सूई को तोड़-तोड़ कर परठता है या परठते हुए का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। - विवेचन - जैसाकि पहले वर्णित हुआ है, भिक्षु वस्त्र, पात्र, दण्ड आदि उपधि का उपयोग शास्त्रमर्यादानुसार यथावश्यक रूप में करता है। जो वस्त्र, पात्र आदि उपधि भिक्षु ने प्राप्त की हो, उसका जब तक वह काम में लेने योग्य स्थिति में रहे, प्रतिछिन्न, परिभिन्न एवं परिभग्न न हो अर्थात् आवश्यकता या प्रयोजन को पूर्ण करने में समर्थ हो तब तक उसंको उपयोग में लेना चाहिए। अभिनव, शोभन, आकर्षक आदि प्राप्त करने के भाव से या अन्य किसी विचार से उसे तोड़-फोड़ कर परठना कदापि उचित नहीं है। ऐसा करना उपकरणों के प्रति भिक्षु की आसक्तता का सूचक है। आसक्तता प्रलोभन का रूप है, जिससे भिक्षु सर्वथा दूर रहे। ___ अत एव उपर्युक्त रूप में उपधि को तोड़-फोड़ कर परठने का प्रायश्चित्त प्रतिपादित हुआ है। . रजोहरण के अनियमित प्रयोग का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू अइरेयपमाणं रयहरणं धरेइ धरतं वा साइजइ॥६६॥ जे भिक्खू सुहुमाइं रयहरणसीसाइं करेइ करेंतं वा साइजइ॥ ६७॥
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