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निशीथ सूत्र
कार्य, किन्तु साधुचर्या के प्रतिकूल होने से वह परिहेय है, परित्याज्य है। जिस उद्देश्य से या जिस कार्य के लिए साधु रूई आदि को कातने का उपक्रम करे, उसके स्थान पर उसके लिए करणीय यह है कि वह गृहस्थों से उपयोग हेतु वैसी वस्तु आचार मर्यादा के अनुरूप याचित कर प्राप्त करे, आवश्यकतानुरूप उपयोग में ले। स्वयं उसे निर्मित करना सर्वथा असंगत है।
निशीथ भाष्य में साधु द्वारा कपास, ऊन आदि काते जाने के दोषों का वर्णन करते हुए कहा गया है :
"कातना आदि तो गृहस्थ के कार्य हैं। भिक्षु यदि वैसा करने लगे तो .साधुत्व की अवहेलना होती है, वैसा करते समय मशकादि जीवों की विराधना होती है, अत्यधिक कातने से हाथों में परिश्रान्तता, शिथिलता आ जाती है, जिससे अन्य कार्य करने में बाधा उत्पन्न होती है। कताई का उपक्रम आगे चलकर बुनाई में भी परिवर्तितं, प्रचलित हो सकता है, संग्रह
आदि दोष भी उसमें आशंकित हैं।'' ___इस सूत्र में इन्हीं कारणों से कताई का उपक्रम भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
सचित्त, चित्रित-विचित्रित दण्ड बनाने आदि का प्रायश्चित्त ____ जे भिक्खू सचित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा करेइ करतं वा साइजइ॥२६॥
जे भिक्खू सचित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा धरेइ धरतं वा साइजइ॥ २७॥ ___ जे भिक्खू चित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ॥ २८॥ ___ जे भिक्खू चित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा धरेइ धरेतं वा साइजइ॥ २९॥
जे भिक्खू विचित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा करेइ करेंतं वा साइजइ॥३०॥
* निशीथ भाष्य, गाथा - १९६६
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