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पंचम उद्देशक - कपास आदि कातने का प्रायश्चित्त
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__यदि भिक्षु को पुनः उन्हें उपयोग में लेने की आवश्यकता हो जाए तो शय्यातर से आज्ञा प्राप्त करके ही उपयोग में ले सकता है। 'वहाँ रखे हुए हैं ही, उपयोग में ले लूं' ऐसा नहीं कर सकता। यदि शय्यातर की पुनः अनुज्ञा प्राप्त किए बिना उपयोग में लेता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है।
जो औपग्रहिक उपधि - उपकरण बाहर से लाए गए हों, सामान्यतः परंपरा यह है कि भिक्षु उन्हें वापस वहीं ले जाकर लौटाता है, किन्तु यदि उनका मालिक संयोगवश उपाश्रय में, भिक्षु के ठहरने के स्थान में आया हुआ हो और यदि वह उसे, वहाँ भी सम्हला दे तो दोष नहीं है। किन्तु सम्हलाने के पश्चात् यदि वह उनको, उनके मालिक की अनुज्ञा प्राप्त किए बिना पुन: उपयोग में लेता है तो उस द्वारा वैसा किया जाना दोष युक्त हो जाता है।
यद्यपि देखने में ये बहुत छोटी बातें लगती हैं, किन्तु भिक्षु के प्रतिक्षण जागरूकतामय जीवन में इतनी भी असावधानी आदेय नहीं है। क्योंकि ऐसी मर्यादाबद्ध नियमानुवर्तिता न रहने से जीवन में अव्यवस्था तथा उच्छंखलता का आना आशंकित है।
जैन दर्शन अत्यन्त सूक्ष्मदर्शितायुक्त है। उसमें प्रत्येक विषय के सन्दर्भ में बहुत ही गहराई से, बारीकी से चिन्तन हुआ है तथा तदनुकूल चर्यामूलक मर्यादाएँ एवं व्यवस्थाएँ स्थापित की गई हैं।
कपास आदि कातने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू सणकप्पासाओ वा उण्णकप्पासाओ वा पोण्डकप्पासाओ वा अमिलकप्पासाओ वा दीहसुत्ताई करेइ करेंतं वा साइज्जइ॥ २५॥
भावार्थ - २५. जो भिक्षु कपास (कपास से प्राप्त रूई), ऊन, पोंड - अर्क आदि वानस्पतिक डोडों से प्राप्त रूई या सेमल आदि वृक्षों से प्राप्त रूई से लम्बे सूत बनाता है - कातकर वैसा करता है अथवा वैसा करते हुएं का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्तं आता है। ... विवेचन - भिक्षु का जीवन आरम्भ-समारम्भ विरहित होता है। वस्त्र आदि किसी भी उपकरण का वह स्वयं निर्माण नहीं करता। यदि निरवद्य रूप में प्राप्त हो तो वह गृहस्थों से याचित कर ग्रहण करता है।
रूई, ऊन आदि को कातकर साधु द्वारा धागा तैयार किया जाना यद्यपि है तो छोटा सा
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