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निशीथ सूत्र
प्रातिहारिक एवं सागारिकसत्क-शय्यासंस्तारक-उपयोग विषयक प्रायश्चित्त
जे भिक्खू पाडिहारियं वा सेजासंथारयं पच्चप्पिणित्ता दोच्चं पि अणणुण्णविय अहिद्वेइ अहिटेंतं वा साइजइ ॥२३॥
जे भिक्खू सागारियसंतियं वा सेजासंथारयं पच्चप्पिणित्ता दोच्चंपि अणणुण्णविय अहिढेइ अहिटुंतं वा साइजइ॥ २४॥
कठिन शब्दार्थ - अणणुण्णविय - अनुज्ञा बिना - पुनः आज्ञा प्राप्त किए बिना, अहिटेइ - अधिष्ठित होता है - बैठने-सोने आदि के रूप में उसे उपयोग में लेता है। ::
भावार्थ - २३. जो भिक्षु प्रातिहारिक रूप में बाहर से - शय्यातर से भिन्न गृहस्थ से गृहीत शय्या-संस्तारक को (उसके स्वामी को) प्रत्यर्पित कर - वापस सम्हलाकर, सौंपकर उसकी आज्ञा प्राप्त किए बिना पुनः उपयोग में लेता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। .
२४. जो भिक्षु शय्यातर से गृहीत शय्या-संस्तारक को वापस सम्हलाकर, (शय्यातर की) आज्ञा प्राप्त किए बिना पुनः उपयोग में लेता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - इन सूत्रों में साधु द्वारा याचित - गृहीत शय्या-संस्तारक के विशेषण के रूप में 'पाडिहारियं - प्रातिहारिक' और 'सागारियर्सतियं - सागारिकसत्क' इन दो पदों का प्रयोग हुआ है।
इन दोनों में अन्तर यह है - साधु जिस मकान में रुका हो, उस मकान मालिक से भिन्न बाहर के किसी गृहस्थ से जो औपग्रहिक उपधि याचित कर ली जाती है, उसे यहाँ 'पाडिहारियं- प्रातिहारिक' के रूप में अभिहित किया गया है। जो उपधि शय्यातर (जिस मकान में भिक्षु रुका हो, उसके मालिक) से याचित कर गृहीत की जाती है, उसे 'सागारियर्सतियं - सागारिकसत्क' शब्द द्वारा सूचित किया गया है। __प्रत्यर्पणीय तो दोनों ही हैं, किन्तु शय्यातर के मकान में जो सहज रूप में उपकरण रखे हुए हों, उन्हें याचित कर भिक्षु उपयोग में लेता है। उपयोग में लेने के बाद वह वहीं, मकान मालिक को यह कहता हुआ कि - 'अपनी सामग्री सम्हाल लो' प्रत्यर्पित कर देता है। उपकरण वहीं ज्यों की त्यों पड़े रहते हैं।
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