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निशीथ सूत्र
गेरु वणिय सेडिय, सोरट्ठिय पिट्ठ कुक्कुसकए य। उक्कुट्ठमसंसठ्ठे, णेयव्वे आणुपुव्वी ॥१८४९ ॥
यहाँ पर निशीथ चूर्णिकार ने भी "पिट्ठ" शब्द को स्वतंत्र मानकर " तंदुलपि आमं असत्थोवहतं" व्याख्या की है । यही अर्थ उपलब्ध अनुवादों में किया जाता है।
"तंदुल" से सूखे चावल अर्थ किया जाए तो वे अचित्त ही होते हैं और हरे चावल अर्थ किया जाय तो उसके लिए “उक्कुट्ठ" शब्द का स्वतंत्र प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ चूर्णिकार स्वयं सचित्त वणस्सईचुण्णो ओकुट्ठो भण्णति ऐसा करते हैं। जिसमें सभी हरी वस्पतियों के कूटे व चटनी आदि का समावेश हो सकता है।
भाष्य, चूर्णि एवं दशवैकालिक की अपेक्षा निशीथ के मूल पाठ में कुछ भिन्नता है। कई प्रतियों में तो 'सोरट्ठिय' शब्द नहीं है किन्तु अन्य 'कंतव, लोद्ध, कंदमूल, सिंगबेर, पुप्फग' ये शब्द बढ़ गये हैं तथा 'एवं एक्कवीसं हत्था भाणियव्वा', 'एगवीसभेएण हत्थेण' आदि पाठ बढ़ गये हैं तो किसी प्रति में २३ संख्या भी हो गई है।
वनस्पति से संस की अपेक्षा यहाँ दो शब्द प्रयुक्त हैं
१. वनस्पति का कूटा पीसा चूर्ण चटनी, २. वनस्पति के छिलके भूसा आदि। इन से हाथ आदि संसृष्ट हो सकते हैं और इनमें सभी प्रकार की वनस्पति का समावेश भी हो जाता है । अतः लोध्र, कंद, मूल, सिंगबेर, पुप्फग के सूत्रों की अलग कोई आवश्यकता नहीं रहती है । भाष्य, चूर्णि तथा दशवैकालिक आदि से भी ये शब्द प्रामाणित नहीं है । 'कंतव' शब्द तो अप्रसिद्ध ही है। अतः ये पांच शब्द और एक्कवीसं हत्था आदि पाठ बहुत बाद में जोड़ा गया है। क्योंकि उसके लिए कोई प्राचीन आधार देखने में नहीं आता है।
ग्रामरक्षक को वशंगत करने का प्रायश्चिंत
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जे भिक्खू गामारक्खियं अत्तीकरेइ अत्तीकरेंतं वा साइज्जइ ॥ ४० ॥ जे भिक्खू गामारक्खियं अच्चीकरेइ अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ ॥ ४१॥
जे भिक्खू गामारक्खियं अत्थीकरेइ अत्थीकरेंतं वा साइज्जइ ॥ ४२ ॥
कठिन शब्दार्थ - गामारक्खियं ग्राम रक्षक |
भावार्थ - ४०. जो भिक्षु ग्राम रक्षक को मन्त्रादि प्रयोग द्वारा स्व-अधीन - अपने वश में करता है या वश में करते हुए का अनुमोदन करता है ।
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