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चतुर्थ उद्देशक - सचित्त संस्पृष्ट हाथ आदि से आहार लेने का प्रायश्चित्त १०५
क्योंकि उन कठोर पृथ्वियों के चूर्ण से ही हाथ लिप्त हो सकता है। अतः पृथ्वी संबंधी शब्दों के समाप्त होने पर इस शब्द का प्रयोग गाथा में हुआ है । किन्तु उसे भी स्वतंत्र शब्द मान करः १७ प्रकार से लिप्त हाथ आदि हैं ऐसा अर्थ किया जाता है । वह तर्कसंगत नहीं है अपितु केवल भ्रान्ति है ।
अगस्त्य चूर्णि में व जिनदासगणी की चूर्णि में पिट्ठ शब्द को स्वतंत्र मान कर जो असंगति की गई है वह इस प्रकार है
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'अग्नि की मंद आंच से पकाया जाने वाला अपक्व पिष्ट (आटा) एक प्रहर से शस्त्र परिणत (अचित्त) होता है और तेज आंच से पकाया जाने वाला शीघ्र शस्त्र परिणत होता है । यहाँ पिष्ट (धान्य के आंटे) को अग्नि पर रखने के पहले और बाद में सचित्त बताया है वह उचित नहीं है ।
धान्य में चावल तो अचित्त माने गये हैं और शेष धान्य एक जीवी होते हैं, वे धान्य पिस कर आटा बन जाने के बाद भी घंटों तक आटा सचित्त रहे यह व्याख्या भी " पिट्ठ” शब्द को अलग मानने के कारण ही की गई है।
गोचरी के समय घर में आटे से भरे हाथ दो प्रकार के हो सकते हैं समय या बर्तन से परात में लेते समय २. धान्य पीसते समय ।
धान्य पीसने वाले से तो गोचरी लेना निषिद्ध है ही और छानते समय तक सचित्त मानना संगत नहीं है। अतः " पिष्ट" शब्द को सूत्रोक्त पृथ्वीकाय के शब्दों का विशेषण मानकर उनके चूर्ण से लिप्तं हाथ आदि ऐसा अर्थ करने से मूल पाठ एवं अर्थ दोनों की संगति हो जाती है।
भाष्य गाथा
दशवैकालिक सूत्र में इस विषय के १६ शब्द हैं। यहाँ उनका प्रायश्चित्त कहा है। "उदउल्ल" में "ससिणिद्ध" का प्रायश्चित्त समाविष्ट कर दिया गया है और 'ससरक्ख' का प्रायश्चित्त 'मट्टियासंसट्ट' में समाविष्ट कर दिया गया है। भाष्य गाथा से इनका क्रम स्पष्ट ज्ञात हो जाता है ।
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चूर्णिकार ने कुछ शब्दों के ही अर्थ किये हैं ।
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१. आटा छानते
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उदउल्ल, मट्टियां वा, ऊसगते चैव होति बोधव्वे । हरिताले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥१८४८ ॥
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