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चतर्थ उद्देशक - उद्धत-हास्य-प्रायश्चित्त
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कलहों को - झगड़ों को पुनः उत्पन्न करता है अथवा उत्पन्न करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - यद्यपि भिक्षु मन, वचन, काय से संतुलित रहता है, इनका समुचित प्रयोग करता है, किन्तु मानव जीवन में यदा-कदा भूल भी हो जाती है। ऐसा होने पर बुद्धिमत्ता इसी में है कि उसे आत्मशोधन द्वारा, शालीन व्यवहार द्वारा सुधार लिया जाए।
. भिक्षु के जीवन में यदि मानसिक क्षुब्धतावश कभी किसी अन्य भिक्षु के साथ कलह का प्रसंग बन जाए, उसके परिणामस्वरूप कटु वचन आदि का प्रयोग हो जाए तो वह वंदनाक्षमायाचना द्वारा उसे अच्छी तरह शान्त कर देता है।
इस सूत्र में व्युपशमित शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। “विशेषेण उपशमितम्व्युपशमित्" जिसे विशेष रूप से - भलीभाँति शान्त कर दिया जाता है अर्थात्. मन में भी जिसे नहीं रखा जाता, उसे व्युपशमित कहा जाता है।
भिक्षु सदा जागरूक रहता है कि किसी भी प्रकार का व्युपशमित कलह कभी उत्पन्न न हो जाए। क्योंकि उसका उत्पन्न होना आत्म-साधना के पथ में आने वाला बाधक हेतु है, विघ्न है।
‘जो भिक्षु व्युपशमित कलह को पुनः उदीर्ण करता है - उभारता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है।
उद्धत - हास्य - प्रायश्चित्त . जे भिक्खू मुहं विप्फालिय हसइ हसंतं वा साइजइ॥ २७॥ . .
. कठिन शब्दार्थ - मुहं - मुख, विष्फालिय - विस्फारित कर - फाड़-फाड़ कर, हसइ - हंसता है। ... भावार्थ - २७. जो भिक्षु मुँह फाड़-फाड़ कर हँसता है. या हँसते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भिक्षु की जीवनचर्या संयम से सदैव अनुप्राणित रहती है। वह मन, वचन तथा शरीर से ऐसे कार्यों का परिवर्जन किए रहता है, जो उसके उदात्त, पावन, संयममय जीवन में अशोभनीय हों, असमीचीन हों। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए यहाँ उद्धता या उच्छंखलता पूर्ण हास्य को भिक्षु के लिए दोष युक्त, प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
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