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-निशीथ सूत्र
कठिन शब्दार्थ - णवाई - नये, अणुप्पण्णाई - अनुत्पन्न - तत्काल अविद्यमान, अहिगरणाई - अधिकरण - कलह - झगड़े, उप्पाएइ - उत्पन्न करता है।
भावार्थ - २५. जो भिक्षु नये-नये झगड़े पैदा करता है - औरों के लिए यों क्लेश उत्पन्न करता है अथवा क्लेश उत्पन्न करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - "अधिक्रियते - अधो गती पात्यते आत्मा येन - तत् अधिकरणम्" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसके द्वारा आत्मा निम्न गति में पतित हो जाती - है अर्थात् जिसके परिणाम स्वरूप आत्मा निम्न गति प्राप्त करती है, उसे. अधिकरण कहा जाता है। . जैन आगमों में अधिकरण शब्द का प्रयोग विशेष रूप से कलह या झगड़े के अर्थ में होता रहा है। पवित्र एवं साधनामय जीवन के धनी साधु के लिए कलह करना सर्वथा अनुचित है, क्योंकि कलह से अनेक अशुभ कर्मों का बंध होता है, जो आत्मा के पतन का . कारण है।
सूत्रकृतांग सूत्र में अधिकरण के संदर्भ में उल्लेख हुआ है -
जो साधु अधिकरण - कलह करता है तथा प्रकट रूप में दारुण ; कठोर वचन बोलता है, उसका अर्थ - जीवन का लक्ष्य मोक्ष तथा उसे प्राप्त करने का मार्ग (संयम) परिहीन हों जाता है - नष्ट हो जाता है। इसलिए पण्डित - ज्ञानी या विवेकशील साधक कलह कदापि न करें ।
उपशमित पूर्वकालिक कलह को पुनः उत्पन्न करने का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू पोराणाई अहिगरणाइं खामिय विओसवियाइं पुणो उदीरेइ उदीरेतं वा साइज्जइ॥२६॥
कठिन शब्दार्थ - पोराणाई - पूर्व कालिक - पहले के, खामिय - क्षामित - वंदना-क्षमायाचना द्वारा, विओसवियाई - व्युपशमित - शान्त किए हुए, उदीरेइ - उदीर्ण करता है - उत्पन्न करता है।
भावार्थ - २६. जो भिक्षु वंदना - क्षमायाचना आदि द्वारा उपशमित पूर्वकालिक . सूत्रकृतांग सूत्र - २.२.१९
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