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चतुर्थ उद्देशक - नवाभिनव कलह उत्पन्न करने का प्रायश्चित्त
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ताकि साध्वियों को जानकारी प्राप्त हो सके, वे सावधानी से स्थित हो सकें। ऐसा न कर एकाएक चले जाना अविधि है, क्योंकि उसमें साधु चोचित मर्यादा का अतिक्रमण या उल्लंघन है। इसलिए वह दोष पूर्ण है, प्रायश्चित्त योग्य है।
साधु-साध्वी संघ की स्वस्थ, शुद्ध एवं अनुशासनोपेत अवस्थिति की दृष्टि से चर्या संबंधी मर्यादाओं का पालन आवश्यक है, इस सूत्र का यह आशय है।
साजियों के आने के मार्ग में उपकरण रखने का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू णिग्गंथीणं आगमणपहंसि दंडगं वा लट्ठियं वा रयहरणं वा मुहपोत्तियं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं ठवेइ ठवेंतं वा साइजइ ॥ २४॥
कठिन शब्दार्थ - आगमणपहंसि - आगमनपथ पर - आने के मार्ग पर, मुहपोत्तियंमुखवस्त्रिका, ठवेइ - रखता है।
भावार्थ - २४. जो, भिक्षु साध्वियों के आने के मार्ग में दण्ड, लाठी, रजोहरण या मुखवस्त्रिका - इन उपकरणों को अथवा इनमें से किसी एक को रख देता है अथवा रखते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु मासिक प्रायश्चित्त आता है। - विवेचन - आचार्य, उपाध्याय तथा स्थविर आदि गीतार्थ साधु का दर्शन करने, उनसे अध्ययन करने आदि कारणों से साध्वियों का तदनुकूल समय-समय पर साधुओं के उपाश्रय में आगमन होता है। उनके आने के मार्ग में, आचार्य आदि के संमुख उपस्थित होने के स्थान तक में किसी साधु को अविवेकवश या कुतूहलवश दण्ड आदि अपना कोई भी उपकरण नहीं रखना चाहिए। ऐसा करना अव्यवस्थित, अननुशासित एवं असावधानी पूर्ण व्यवहार का द्योतक है। अत एव दोष युक्त होने के कारण इसे लघुमासिक प्रायश्चित्त योग्य कहा गया है।
यहाँ इतना और ज्ञातव्य है कि यदि कोई साधु मलिन विचार पूर्वक दण्डादि उपकरण मार्ग में रखता है तो यह और भी बड़ा दोष है, जिसके लिए गुरु चातुर्मासिक आदि रूप से अधिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है।
... नवाभिनव कलह उत्पन्न करने का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू णवाई अणुप्पण्णाई अहिगरणाई उप्पाएइ उप्पाएंतं वा साइजइ॥ २५॥
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