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निशीथ सूत्र
तथाभूत स्थापना कुलों में ऐसे भी हो सकते हैं, जिनको जैन भिक्षुओं में अश्रद्धा, विपरीत भावना हो, ऐसे भी हो सकते हैं, जिनका जैन भिक्षुओं के साथ विशेष अनुराग हो तथा कुछ ऐसे भी हो सकते हैं, जो साधुओं के ठहरने के स्थान के सन्निकटवर्ती हों। कई ऐसे कुल हो सकते हैं, जिनमें विशिष्ट पदार्थ, बहुमूल्य औषधियाँ आदि प्राप्य हैं, जो उन्हें दान में देते हैं।
जिनका जैन भिक्षुओं के साथ विरोध हो, वहाँ जाना इसलिए अनुचित है कि वे भिक्षु का तिरस्कार, अपमान या अवज्ञा कर सकते हैं, भिक्षा दिए बिना खाली हाथ लौटा सकते हैं।. जिनका अधिक अनुराग हो वहाँ देने वाले सदोष - निर्दोष भिक्षा का अधिक ध्यान न रख सके, ऐसा भी आशंकित है। अतः ऐसे स्थानों के संबंध में साधु को भलीभाँति जानकारी और गवेषणा करनी चाहिए ताकि उसकी भिक्षाचर्या में बाधा, अशुद्धता न आ पाए।
भिक्षु सामान्यतः सादा, निर्विकार, आरोग्यानुकूल आहार लेते हैं। विशिष्ट, स्वादिष्ट, पौष्टिक पदार्थों को वे स्वीकार नहीं करते। इतना अवश्य है ग्लान, रुग्ण, दुर्बल, बाल, वृद्ध आचार्य आदि के लिए आवश्यक होने पर, पथ्य रूप होने पर विवेकशील भिक्षु सावधानी और जागरूकता के साथ अपेक्षानुकूल आहार स्वीकार कर सकता है।
जो भिक्षु उपर्युक्त स्थापित कुलों के संदर्भ में भलीभाँति जानकारी और खोज किए बिना जाता है, वहाँ अनेक दोष आशंकित हैं। वैसा करना वर्जित है, अत एव प्रायश्चित्त योग्य कहा गया है।
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साध्वी - उपाश्रय में अविधिपूर्वक प्रवेश का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू णिग्गंथीणं उवस्सयंसि अविहीए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥ २३ ॥
कठिन शब्दार्थ - णिग्गंथीणं - साध्वियों के, उवस्सयंसि - उपाश्रय में, अविहीएअविधि से - मर्यादा का अतिक्रमण कर ।
भावार्थ २३. जो भिक्षु मर्यादा का अतिक्रमण कर साध्वियों के उपाश्रय में अनुप्रविष्ट होता है, प्रवेश करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भिक्षु को यदि प्रयोजनवश साध्वियों के उपाश्रय में प्रवेश करना हो तो वह एकाएक प्रवेश न करे, मुख्यद्वार के बाहर से ही अपने प्रवेश करने की सूचना दे अथवा श्रमणोपासक या श्रमणोपासिकाओं द्वारा, जो वहाँ उपस्थित हों, साध्वियों को सूचना करवाए
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