________________
चतुर्थ उद्देशक - स्थापना कुल की जानकारी आदि प्राप्त किए....
९३
के रूप में जब इनका भोजन में उपयोग आवश्यक हो तो आचार्य या उपाध्याय या उनकी अनुपस्थिति में स्थविर अथवा गीतार्थ, विद्यादि गुणसंपन्न तत्त्ववेत्ता साधु से आज्ञा प्राप्त कर इनका सेवन करने का विधान है। वे आवश्यकतानुरूप इनके सेवन का काल, मात्रा या प्रमाण आदि की आज्ञा देते हैं। - इस प्रकार आज्ञा प्राप्त किए बिना ही साधु द्वारा इनका सेवन किया जाना दोषयुक्त है। अत एव उसे प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
स्थापना कुल की जानकारी आदि प्राप्त किए
बिना भिक्षार्थ प्रवेश का प्रायश्चित्त जे भिक्खू ठवणाकुलाई अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पुव्वामेव पिंडवायपडियाए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ॥ २२॥
कठिन शब्दार्थ - ठवणाकुलाइं - स्थापना कुल - साधु आदि के निमित्त जहाँ अन्न-पान आदि स्थापित किए जाते हैं, वे कुल। ___ भावार्थ - २२. स्थापना कुलों को जाने, पूछे या गवेषणा किए बिना या उनके संबंध में जानने, पूछने और गवेषणा करने से पूर्व ही जो भिक्षु भिक्षा लेने हेतु गृहस्थ के घर में प्रवेश करता है अथवा प्रवेश करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - प्राचीनकाल में हमारे देश में दान, सेवा, सहयोग और आतिथ्य की बड़ी समीचीन परंपरा थी। संपन्न परिवारों के उदारचेता व्यक्ति विभिन्न परंपराओं के संतों, अतिथियों आदि के लिए नित्यप्रति भोजन की विशेष व्यवस्था रखते थे। ऐसे परिवारों को स्थापित कुल कहा जाता था अथवा आचार्य आदि के द्वारा स्थगन किये (रोके) हुए वृद्ध, ग्लान, रोगी तपस्वी के लिए जहाँ पर निर्दोष व अनुकूल द्रव्य सुलभ मिलते हैं उन विशिष्ट कुलों को भी स्थापना कुल कहा जाता था। पूर्व में स्वतन्त्र गोचरी की व्यवस्था होने से ऐसे कुलों की जानकारी करनी होती थी। वर्तमान में सामूहिक गोचरी होने से इस प्रकार की विधि प्रायः नहीं है। जैन आगमों में जो दानशालाओं का वर्णन आता है, वह इसी का एक व्यापक रूप प्रतीत होता है। ' साधु जब भिक्षा के लिए जाए तब वह स्थापित कुलों के संदर्भ में पूरी तरह जानकारी करे, पूछताछ करे, गवेषणा करे।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org