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निशीथ सूत्र
के अन्तर्गत मर्यादा एवं व्यवस्था का इससे उल्लंघन होता है, जिससे स्वच्छन्दता फैलना आशंकित है।
अननुज्ञात रुप में विगय-सेवन का प्रायश्चित्त .. जे भिक्खू आयरियउवज्झाएहिं अविदिण्णं विगई आहारेइ आहारेंतं वा साइज्जइ॥ २१॥ - कठिन शब्दार्थ - आयरियउवज्झाएहिं - आचार्य या उपाध्याय को, अविदिण्णं - अविदत्त - अननुज्ञात - विशेष रूप से आज्ञा प्राप्त किए बिना, विगई - विकृतं - विकृतिजनक पौष्टिक पदार्थ - दूध, दही, घृत, तेल तथा गुड़ या शक्कर। ___ भावार्थ - २१. जो भिक्षु आचार्य या उपाध्याय द्वारा विशेष रूप से आज्ञा प्राप्त किए बिना दूध, दही, घृत, तेल तथा गुड़ या शक्कर रूप पंचविध विगय में से किसी का भी सेवन करता है अथवा सेवन करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। .. विवेचन - भिक्षु का जीवन, रहन-सहन, खान-पान इत्यादि सभी सादगीपूर्ण और . सात्त्विक हों, यह आवश्यक है। __ भोजन या खान-पान का जीवन से विशेष संबंध है, क्योंकि प्रतिदिन उसे लेना होता है, उसी पर शरीर टिका रहता है। भिक्षु का लक्ष्य शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त करना है, देह उसका लक्ष्य नहीं है।
जैसा कि पहले व्याख्यात हुआ है, देह आध्यात्मिक साधना में उपकरण - साधनभूत है, इसलिए वह परिरक्षणीय है। भिक्षु इसी भाव से आहार करता है कि उसका शरीर चलता रहे, दैनंदिन काम-काज के लिए समर्थ रहे, साधना में उपयोगी रहे। शरीर को हृष्ट-पुष्ट, हट्टाकट्टा या मोटा-ताजा बनाना उसका कदापि लक्ष्य नहीं है प्रत्युत आध्यात्मिक साधना के विकास की दृष्टि से प्रतिबन्धक है। ___ इस सूत्र में प्रयुक्त प्राकृत का 'विगय' शब्द विकृत का वाचक है। जो विकृति से युक्त होता हो या विकृति का उत्पादक हो, उसके लिए विकृत (विगय) शब्द का प्रयोग हुआ है। दूध, दही, घृत, तेल और गुड़-शक्कर - ये पौष्टिक पदार्थ हैं, शरीर को परिपुष्ट बनाते हैं। शारीरिक परिपुष्टता संयममूलक साधना में अनावश्यक ही नहीं, बाधक भी है। इसलिए इन पदार्थों को विगय कहा गया है।
स्वस्थता में सामान्यतः इनका सेवन अविहित है। रुग्णता, दुर्बलता, पथ-सेवनता आदि
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