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तृतीय उद्देशक - विधि विरुद्ध परिष्ठापन प्रायश्चित्त
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क्योंकि यहाँ 'राओ (रात्रि)' और 'वियाले (संध्या काल)' से पहले प्रारम्भ में दिया (दिवा - दिवस)' का प्रयोग हुआ है। जब तक सूर्य रहता है, तब तक दिन कहा जाता है, इसलिए सूर्य का उदित होना यहाँ संगत या घटित नहीं होता। अत एव यहाँ 'सूर्य का प्रकाश न पहुँचना' अर्थ किया गया है, जो प्रसंग के अनुकूल है।
सामान्यतः भिक्षु अचित्त स्थण्डिल उच्चार-प्रस्रवण योग्य भूमि में ही जाकर मल-मूत्र का परिष्ठापन करते हैं, किन्तु मल-मूत्र की शंका इतनी तीव्र हो जाए कि उसे सहा न जा सके, रोका न जा सके तो उपाश्रय में ही एकान्त स्थान में पात्र में विसर्जित करने का विधान है। क्योंकि मल-मूत्र को रोकना आरोग्य की दृष्टि से बहुत हानिप्रद है। आयुर्वेदशास्त्र में कहा है - 'न वेगान् धारयेद् धीमान्' बुद्धिमान् पुरुष मल-मूत्र के वेग को रोके नहीं। साथ ही साथ यह भी बतलाया गया है कि मल के वेग को रोकने से उदर तथा आन्त्र विषयक रोग हो जाते हैं। मूत्र के वेग को रोकने से मूत्रकृच्छ्र आदि बीमारियाँ हो जाती हैं, मन भी विकृत हो जाता है। बलपूर्वक रोकने से उनके स्वयं निःसृत होने की आशंका बनी रहती है, जिससे अशुचि प्रसत होती है।
सूर्य का प्रकाश जहाँ दिन में कभी भी नहीं पहुँचता हो वहाँ परठना जो दोषपूर्ण एवं प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, उसका अभिप्राय यह है कि ऐसे स्थान पर परठा हुआ उच्चार-प्रस्रवण जल्दी सूखता नहीं, क्योंकि वह स्थान यत्किंचित् आर्द्रता लिए रहता है। इसलिए वहाँ सम्मूर्च्छिम जीवों की उत्पत्ति संभावित है, जिससे ज्यादा समय तक जीव विराधना आशंकित रहती है।
साथ ही साथ. परठते समय भिक्षु यह भी ध्यान रखे कि यदि मल के साथ छोटे-छोटे कृमि निकलें हो तो वह धूप में न परठे, क्योंकि वे धूप में तत्काल मर जाते हैं। उन्हें छाया में परठे। मरते तो वे छाया में भी है, किन्तु थोड़ी देर बाद स्वयं अपनी मौत से मरते हैं। ___यदि धूप में ही परठना पड़े तो कुछ देर (१५-२० मिनट) बाद परठे, क्योंकि तब तक वे कृमि स्वयं ही मर जाते हैं। उनकी मृत्यु से साधु की संबंधता या हेतुमत्ता नहीं होती।
आचारांग सूत्र में भी मल-मूत्र प्रस्रवण विषयक विधि का उल्लेख हुआ है★, जो पठनीय है।
॥ इति निशीथ सूत्र का तृतीय उद्देशक समाप्त॥
* आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कंध, दशम अध्ययन.
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