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१. निशीथ सूत्र
आदि के सन्निकट उच्चार-प्रस्रवण परठना अव्यावहारिक और अनुचित है। देवों की आशातना, अवहेलना भी आशंकित है। जिन परिवारों के मृतकों का वहाँ दाह-संस्कार हुआ हो, वे भी यह जानकर दुःखित एवं व्यथित होते हैं।
विधि विरुद्ध परिष्ठापन प्रायश्चित्त जे भिक्खू सपायंसि वा परपायंसि वा दिया वा राओ वा वियाले वा उब्बाहिज्जमाणे सपायं गहाय परपायं जाइत्ता वा उच्चारं पासवणं वा परिट्टवेत्ता अणुग्गए सूरिए एडेइ एडेंतं वा साइज्जइ। तं सेवमाणे आवजइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं ।। ८२॥
॥णिसीहऽज्झयणे तइओ उद्देसो समत्तो॥३॥ कठिन शब्दार्थ - सपायंसि - स्वपात्र में - अपने पात्र में, परपायंसि - परपात्र में - दूसरे के पात्र में, दिया - दिन में, राओ - रात में, वियाले - विकाल में - संध्या-समय में, .
उब्बाहिज्जमाणे - उच्चार-प्रस्रवण के वेग से बाध्यमान - मल-मूत्र की तीव्र शंका युक्त, । परिट्ठवेत्ता - परठकर, अणुग्गए सूरिए - जहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँचता हो, उस स्थान पर, एडेइ - परठता है।
भावार्थ - ८२. जो भिक्षु दिन, रात या संध्याकाल के समय मल-मूत्र के तीव्र वेग से बाधित होता हुआ स्व-निश्रित या अन्यनिश्रित पात्र में विसर्जित उच्चार-प्रस्रवण को अपने पात्र में लेकर दूसरे का पात्र याचित कर उसमें निहित कर जहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंचता हो, वहाँ परठता है अथवा परठते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ___ उपर्युक्त ८२ सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त-स्थान के सेवन करने वाले को उद्घातिक परिहार-तप रूप लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार निशीथ अध्ययन (निशीथ सूत्र) में तृतीय उद्देशक परिसमाप्त हुआ। विवेचन - "न उद्गतः - उदित इति अनुद्गतः, तस्मिन् अनुद्गगते - अनुपात सूर्ये" यहाँ 'सति' अर्थ में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग हुआ है। इस व्युत्पत्ति या विग्रह के अनुसार 'अनुद्गत' का अर्थ 'नहीं उगा हुआ' होता है। अत: इस पद का सामान्यतः 'सूर्योदय से पूर्व' - ऐसा अर्थ होता है, किन्तु यहाँ यह अर्थ संगत नहीं होता।
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