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निशीथ सूत्र
यदि नेत्र आदि के. मल ऐसी उपस्थिति उत्पन्न कर दें, जिससे देखने आदि की क्रियाओं में, ईर्या आदि समितियों के सम्यक् निर्वाह में, परिपालन में बाधा उत्पन्न होती हो तो आवश्यकता के अनुरूप तथा संयम-जीवितव्य की सुरक्षा की दृष्टि से नेत्र आदि का मैल निकालना दोष नहीं है, क्योंकि वहाँ परिणामों की धारा निर्मलता युक्त होती है।
पसीने आदि के निवारण का प्रायश्चित्त : जे भिक्खू अप्पणो कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वा णीहरेज वा विसोहेज वा णीहरेंतं वा विसोहेंतं वा साइज़॥७०॥ ..
कठिन शब्दार्थ - कायाओ - शरीर से, सेयं - स्वेद - पसीना, जल्लं - जमा हुआ मैल, पंकं - शरीर से निकले हुए पसीने पर लगी हुई धूल आदि - गीला मैल, मलं - शरीर से निकले हुए खून आदि पर जमी हुई मिट्टी आदि।
भावार्थ - ७०. जो भिक्षु अपने शरीर का पसीना, जमा हुआ मैल, गीला मैल या . शरीर से निकले रक्त आदि पर जमी हुई मिट्टी - इनका निर्हरण करे - इन्हें निवारित करे या. विशोधित करे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - पंचमहाव्रतधारी, त्यागी, तपस्वी, शुद्ध संयम के परिपालयिता साधु के लिए शरीर गौण है, आत्मा का उत्थान तथा कल्याण ही मुख्य है। इसलिए शरीर की चिन्ता वह तभी करे, जब उसकी संयमोपयोगिता बाधित होती प्रतीत हो। मोक्षमार्गानुगामी साधु सदा ऐसा ही करते हैं।
उपर्युक्त सूत्र में स्वेदादि निवारण को जो प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, उसका आशय यह है कि साधु गृहस्थों के समान नित्य नियमित आदत आदि की दृष्टि से ऐसा कदापि न करे, क्योंकि उससे संयम-संपृक्त परिणाम शिथिल होते हैं। अत एव ये प्रवृत्तियाँ दोषपूर्ण हैं।
विहार में मस्तक आवरिका का प्रायश्चित्त जे भिक्खू गामाणुगामं दूइजमाणे अप्पणो सीसदुवारियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ॥ ७१॥
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