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निशीथ सूत्र
६१. जो भिक्षु अपने नेत्रों का एक बार या अनेक बार मार्जन करे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
६२. जो भिक्षु अपने नेत्रों का संवाहन करे या परिमर्दन करे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
६३. जो भिक्षु अपने नेत्रों पर तेल, घृत या चिकने पदार्थ या मक्खन एक बार या अनेक बार मसले - लगाए अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
६४. जो भिक्षु अपने नेत्रों पर लोध्र यावत् पद्मचूर्ण एक बार या अनेक बार मले- मसले अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
६५. जो भिक्षु अपने नेत्रों को अचित्त शीतल या उष्ण जल द्वारा एक बार या अनेक बार प्रक्षालित करे - धोए अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
६६. जो भिक्षु अपने नेत्रों को फूत्करित करे या रंजित करे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - उपर्युक्त सूत्रों के अन्तर्गत प्रथम सूत्र में आँखों की पलकों को काटने तथा संवारने का प्रायश्चित्त कहा गया है। वह गृहस्थों के समान नित्य नियमित रूप से करने की दृष्टि से कहा गया है। आँखों का उपयोग तो केवल देख-देख कर चलने, उठने, बैठने आदि सभी दैनंदिन क्रियाएँ यतनापूर्वक करने में है। ऐसा करना संयम के सम्यक् परिपालन में सहायक है, आवश्यक है।
यदि आँखों की पलकें इतनी बढ जाए कि वे देखने में असुविधा, बाधा उत्पन्न करे तो उन्हें साधु यदि अनासक्त भाव से, यतनापूर्वक कार्य करने में अनुकूलता रहे, इस दृष्टि से काटे या कतरे, छोटा करे तो उसमें दोष नहीं है। क्योंकि उसके परिणाम शुद्ध हैं। उक्त सूत्र इसी आशय को लिए हुए है।
प्रथम सूत्र के अतिरिक्त अवशिष्ट सूत्रों में नेत्रों के आमर्जन, प्रमार्जन, संवाहन, परिमर्दन, अभ्यंगन, उद्वर्तन, प्रक्षालन, फूत्कारन एवं रंजन का जो कथन हुआ है, वह नित्य नियमित रूप से आदत से इन प्रवृत्तियों को करने की दृष्टि से बताया गया है, ऐसा करना प्रायश्चित्त का कारण है। साधु का लक्ष्य तो संवर एवं निर्जरा द्वारा आत्मा की सुन्दरता, शुद्धता, पावनता को सिद्ध करना है - साधना है।
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