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तृतीय उद्देशक - अक्षि-रोम - कर्तन एवं अक्षि- परिकर्म-विषयक प्रायश्चित्त ७५
विशुद्ध रूप में परिपालन करता है, जैसे गृहस्थ प्रतिदिन नियमित रूप से उपर्युक्त कार्य करते हैं, साधुओं के लिए वे कार्य वर्जनीय हैं। ऐसा करना साधुत्व की विडम्बना है। देखने वालों के मन पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है । साधु-जीवन तो एक ऐसा सजीव आदर्श है, जिसे देखकर लोगों को अध्यात्म जागरण की प्रेरणा प्राप्त होती है । वैसे प्रशस्त, प्रकृष्ट जीवन को इस प्रकार के भद्दे एवं भोंडे उपक्रमों द्वारा दूषित नहीं बनाना चाहिए ।
अक्षि-रोम - कर्तन एवं अक्षि- परिकर्म-विषयक प्रायश्चित्त
जे भिक्खू अप्पणो दीहाइं अच्छिपत्ताइं कप्पेज वा संठवेज्ज वा कप्पेतं वा संठवेंतं वा साइज्जइ ॥ ६० ॥
जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥ ६१ ॥
जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहेंतं वा पलिमद्देतं वा साइज्जइ ॥ ६२ ॥
जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा साइज्जइ ॥ ६३ ॥
जे भिक्खू अप्पो अच्छीणि लोद्धेण वा जाव पउमचुण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वट्टेज़ वा उल्लोलेंतं वा उव्वट्टेतं वा साइज्जइ ॥ ६४ ॥
जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा साइज्जइ ॥ ६५ ॥ जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि फूमेज वा रएज्ज वा फूमेंतं वा रतं वा साइज्जइ ॥ ६६ ॥
कठिन शब्दार्थ - अच्छिपत्ताइं - अक्षि पक्ष्म आँखें !
आँखों की पलकें (रोम), अच्छीणि
पलकों को काटे या संवारे अथवा
भावार्थ - ६०. जो भिक्षु अपने बढे हुए नेत्र रोमों वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
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