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तृतीय उद्देशक - ओष्ठ-आमर्जन-प्रमार्जनादि - विषयक प्रायश्चित्त
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इसी अनेकान्त दृष्टिकोण से इन सूत्रों का विवेचन किया जाना चाहिए। इन सूत्रों में दन्त-आघर्षण आदि का जो प्रायश्चित्त बतलाया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि प्रतिदिन की आदत की दृष्टि से भी दाँतों का आघर्षण-प्रघर्षण, प्रक्षालन, रंजीकरण आदि परिकर्म दोषयुक्त हैं। वैसा करने में साधु की भावना आध्यात्मिक, पारमार्थिक वृत्ति से. हटकर लौकिकता का, तन्मूलक बाह्य प्रदर्शन का संस्पर्श करने लगती है। ऐसा करना सर्वथा त्याज्य है, दूषणीय है, प्रायश्चित्त योग्य है।
दाँतों के छिद्रों में आहारादि के फंसे रहने से सड़ान, पायरिया आदि रोग, दन्तक्षय इत्यादि न हो, दूषित दाँतों से चबाया गया, खाया गया आहार उदर में पहुँच कर अन्य व्याधि उत्पन्न न करे, इस प्रकार चिकित्सा की दृष्टि से उदासीनता तथा निःस्पृहतापूर्वक दाँतों की अपेक्षित सफाई करना दोष युक्त नहीं है।
ओष्ठ-आमर्जन-प्रमार्जनादि विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू अप्पणो उढे आमज्जेज वा पमज्जेज वा आमजंतं वा पमजतं वा साइजइ॥५३॥
जे भिक्खू अप्पणो उढे संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहेंतं वा पलिमदेंतं वा साइजइ॥ ५४॥
जे भिक्खू अप्पणो उट्टे तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा साइज्जइ॥ ५५॥
जे भिक्खू अप्पणो उढे लोद्रेण वा जाव पउमचुण्णेण वा उल्लोलेज वा उव्वट्टेज वा उल्लोलेंतं वा उव्वढेंतं वा साइज्जइ॥५६॥ .
जे भिक्खू अप्पणो उद्धे सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज वा उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा साइजइ॥ ५७॥
जेभिक्खूअप्पणो उट्टे फूमेज वारएज वा फूमेंतंवारएंतंवा साइज्जइ ॥५८॥ कठिन शब्दार्थ - उद्धे - ओष्ठ - होठ।
भावार्थ - ५३. जो भिक्षु अपने होठों का आमर्जन या प्रमार्जन करे - एक बार या अनेक बार वस्त्र आदि से विशेष रूप से मार्जन करे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। .
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