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निशीथ सूत्र
पारपात
विवेचन - इन सूत्रों में साधु द्वारा अपने शरीर के विभिन्न अंगों के बालों को काटा जाना या संवारना दोषपूर्ण बतलाया गया है। क्योंकि साधु आत्म-लक्षी होता है, देह-लक्षी नहीं। देह तो गौण है, वह तभी तक आदेय है, जब तक संयम में साधक, उपकारक हो।
दन्त - आघर्षणादि - विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू अप्पणो दंते आघंसेज वा पधंसेज वा आघसंतं वा पघंसंतं वा साइजइ ॥५०॥
जे भिक्खू अप्पणो दंते सीओदगवियडेण वा उसिणो - दगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज वा उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा साइजइ॥५१॥
जेभिक्खूअप्पणोदंते फूमेज वारएज वा फूतं वा रएंतंवा साइजइ ॥५२॥ कठिन शब्दार्थ - दंते - दाँतों को, आघंसेज्ज - घिसे, पघंसेज्ज - बार-बार घिसे।
भावार्थ - ५०. जो भिक्षु अपने दाँतों को मंजन आदि से एक बार या अनेक बार . घिसे - रगड़-रगड़कर साफ करे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लेघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
५१. जो भिक्षु अपने दाँतों को अचित्त शीतल या उष्ण जल से एक बार या अनेक बार धोए अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। 6. ५२. जो भिक्षु अपने दाँतों को मुखवायु से फूत्करित करे - फूंक देकर स्वच्छ करे या मिस्सी. आदि से रंजित करे - रंगे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक , प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - जैन दर्शन अनेकान्त सिद्धान्त पर आश्रित है। वहाँ एकान्तिक दृष्टि से तत्त्व-निरूपण नहीं होता। विरुद्ध अपेक्षाओं को दृष्टि में रखते हुए वस्तु-स्वरूप का दिग्दर्शन कराया जाता है। अनेकान्त सिद्धान्त जब वाणी या भाषा का विषय बनता है, तब उसे स्याद्वाद कहा जाता है। "१. स्यात् अस्ति, २. स्यात् नास्ति, ३. स्यात् अस्ति नास्ति, ४. स्यात् अवक्तव्य, ५. स्यात् अस्ति अवक्तव्य, ६. स्यात् नास्ति अवक्तव्य, ७. स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य" - स्यावाद के ये सात भंग हैं। इनके आधार पर किसी वस्तु का स्वरूप निरूपण किया जाता है। स्याद्वाद मंजरी, स्याद्वाद-रत्नावतारिका तथा अनेकान्त-जय-पताका, सप्तभंगीतरंगिणी इत्यादि ग्रन्थों से ये विषय पठनीय हैं।
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