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तृतीय उद्देशक - नखशिखाओं को काटने-संस्कारित करने का प्रायश्चित्त
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. कठिन शब्दार्थ - पालुकिमियं - पायुकृमिक - अपान द्वार के कृमि, कुच्छिकिमियंकुक्षिकृमिक - कुक्षि - उदर द्वार के कृमि, अंगुलीए - अंगुली द्वारा, णिवेसिय - निविष्ट कर - डालकर।
भावार्थ - ४०. जो भिक्षु अपने अपानद्वार की या उदर की कृमियों को अंगुली डालडालकर निकालता है अथवा निकालते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भोजन के अपाचन, अजीर्ण इत्यादि के कारण अपान - मल स्थान में, कुक्षि - उदर में छोटे-छोटे कृमिक उत्पन्न हो जाते हैं। वे कुक्षि के नीचे के भाग और अपान द्वार के समीप एकत्रित रहते हैं तथा भीतर ही भीतर काटते हैं, जिससे बड़ी पीड़ा होती है। मल के साथ उनमें से अनेक सहज रूप में बाहर निकलते रहते हैं एवं कुछ ही देर में मर जाते हैं। ___यदि कोई साधु अपानद्वार में अंगुली डाल-डालकर उन्हें निकालता है तो उन जीवों की विराधना होती है। अपने को चाहे कितनी ही पीड़ा हो, साधु जीवों की विराधना न करे। वैसा करने से प्राणातिपात-विरमण महाव्रत दूषित होता है। इसीलिए वैसा करना यहाँ प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
नवशिरवाओं को काटने-संस्कारित करने का प्रायश्चित्त .. जे भिक्खू अप्पणो दीहाओ गहसिहाओ कप्पेज वा संठवेज वा कप्तं वा संठवेंतं वा साइजइ॥४१॥ - कठिन शब्दार्थ - दीहाओ - दीर्घ-बढ़े हुए, णहसिहाओ - नखशिखाएँ .- नखों के आगे के भाग, कप्पेज्ज - काटे, संठवेज्ज - संस्कारित करे - सुधारे।
भावार्थ - ४१. जो भिक्षु अपने नखों के किनारों को काटे या संस्कारित करे- सुधारे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - इस सूत्र में साधु द्वारा अपने नखों के अग्रभाग को काटा जाना, संस्कारित किया जाना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - - नख ज्यादा बढ़ जाएं तो उनमें मैल जमा हो जाता है, आहार के समय वह खाद्य. .पदार्थों के साथ पेट में चला जाता है तथा हानि पहुँचाता है। नखों के तीक्ष्ण अग्रभाग, शरीर
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